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________________ 4FFFFF प्रमाद त्याग कर संयम तप आदि धारण किया थां.काया से ममत्व त्याग कर आकिंचन्य धर्म धारण किया था तथा ब्रह्मचर्य के समस्त दोषों को नष्ट कर दृढ़ ब्रह्मचर्य धारण किया था। इस प्रकार वे मुनिराज अपने हृदय में दश धर्म का सर्वदा चिन्तवन करते रहते थे । बे मुनिराज अपनी काया, वाहन, लक्ष्मी, गृह, राज्य, भोग आदि पदार्थों में तथा संसार में सदैव अनित्यता का स्मरण किया करते थे । इस जीव को धर्म के अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई भी व्याधि, जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोकं आदि से त्राणकर्ता नहीं है-इस प्रकार वे सदैव स्मरण किया करते रहते थे । यह अनादि संसार रूपी वन महा भयानक है, घोर है तथा अनेक दुःखों से परिपूर्ण है। इस संसार में यह प्राणी पंच परिवर्तनों के प्रभाव से सदा परिभ्रमण किया करता है-इस प्रकार वे अपने चित्त में सदैव चिन्तवन किया करते थे । यह जीव संसार रूपी समुद्र में पुण्य-पाप के फल सुख-दुःख को अकेला ही अनेक प्रकार से भोगा करता है । सुख-दुःख के बाँटने में कोई साथी या मित्र नहीं होता, इस प्रकार से भी वे चिन्तवन किया करते थे । यह आत्मा देह से सर्वथा भिन्न है, फिर भला वह अन्य पदार्थ में मिल कर एक कैसे हो सकती है ? इस प्रकार वे मुनिराज अपने हृदय में सर्वदा विचार किया करते थे । यह अपनी काया समस्त दुःखों की खानि है, अपवित्र है तथा अशुद्ध पदार्थों का मन्दिर है । यह शरीर कभी शुद्ध नहीं हो सकता, सदा अशुद्ध ही रहेगा-वे मुनिराज इस प्रकार भी विचार किया करते थे ॥१२०॥ जिस प्रकार नौका में जल के भरने से वह समुद्र में डूब जाती है, उसी प्रकार कर्मों के आने (बंध) से यह प्राणी संसार रूपी समुद्र में डूब (निमग्न हो) जाता है । इस प्रकार का तुलनात्मक चिन्तवन भी वे अपने हृदय में करते थे । जिस प्रकार आते हुए जल को अवरुद्ध कर (रोक) देने से कोई नौका अपने गन्तव्य तक सुरक्षित पहुँच जाती है, उसी प्रकार कर्मों का संवर होने से यह जीव मोक्ष में जा विराजमान होता है । इस प्रकार की भावना भी वे अपने हृदय में धारण करते थे । जिस प्रकार अजीर्ण रोग से दुःखी मनुष्य मल के निकल जाने से सुखी होता है, इसी प्रकार वे अपने चित्त में चिन्तवन करते थे। यह लोक ऊर्ध्व, मध्य तथा अधोभाग के भेद से तीन प्रकार का है तथा सर्वदा दुःख से भरा हुआ है-नित्य तथा अनित्य इनके दो स्वरूप हैं, इस प्रकार का ध्यान वे अपने हृदय में धारण करते थे । इस जीव को मनुष्य जन्म, श्रेष्ठ कुल, नीरोगी काया, पूर्ण आयु तथा उत्तम धर्म की प्राप्ति उत्तरोत्तर दुर्लभ है-इस रहस्य पर भी वे हृदय में चिन्तवन करते थे । धर्म हिंसा से रहित है, समस्त प्रकार FFE 5 १७३
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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