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________________ पर पधारे । राजा नन्दन ने भी भक्तिपूर्वक उनका स्थापन किया एवं विधिपूर्वक उत्तम, शुभ, रसीला एवं मधुर आहार उनको दिया । शुभ कर्म के उदय से उसके महल में भी परलोक के फल को सूचित करनेवाली एवं देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई। तदनन्तर एक दिवस कामना रहित वे मुनिराज संयम वृद्धि के लिए पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सिंहसेन के यहाँ पधारे ॥१००॥ राजा सिंहसेन ने भी उनके चरण-कमलों में नमस्कार कर उनका स्थापन किया एवं मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक चारित्र उन्नायक उत्तम मधुर आहार दिया । तत्काल अर्जित पुण्य के प्रभाव से उनके गृह प्रांगण में भी बहुत से उत्तम द्रव्यों से परिपूर्ण रत्न-वृष्टि आदि पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई थी। यह उचित भी है, क्योंकि मनुष्यों को दान के प्रभाव से भला क्या प्राप्त नहीं होता है ? अर्थात् सब कुछ प्राप्त होता है । वे मुनिराज तपश्चरण के द्वारा संयम की चरम कोटि पर पहुँच गये थे तथा अनुज दृढ़रथ के संग-संग नभस्तिलक पर्वत पर जा विराजमान हुए । उन शुद्ध बुद्धिवाले मुनिराज ने अपनी एक माह की आयु शेष जानकर 'प्रायोपगमन' नामक संन्यास धारण किया था। जिसमें प्रायः चारों आराधनाओं तथा तीनों रत्नत्रयों का आराधन प्राप्त हो, उसको प्रायोपगमन कहते हैं अथवा जिस शुभ प्रायोपगमन मे पहिले हिंसा आदि से उत्पन्न हुए समस्त पापों के समूह प्रायः नष्ट हो जायें, उसको प्रायोपगमन कहते हैं अथवा जिसमें मनुष्यों के निवास-स्थान से पृथक होकर वन में जाना पड़े, उसको बुद्धिमानों तथा श्री जिनेन्द्रदेव ने प्रायोपगमन कहा है । वे मुनिराज अपनी काया का न तो स्वयं कुछ प्रतिकार करते थे एवं न कभी अन्य से कराने की कामना करते थे । इस प्रकार काया से ममत्व त्याग कर वे निश्चल विराजमान थे । वे मुनिराज अपनी क्षमता के अनुसार शक्ति का आश्रय लेकर ध्यान तथा अध्ययन के संग-संग अनशन तप करते थे । तपश्चरण से उनके सर्वांग पर केवल अस्थि-चर्म शेष रह गया था। उनका उदर अत्यन्त कृश हो गया था, देह के अंग-उपांग सूख गये थे तथा कमल रूपी नेत्रकोटर अत्यन्त गहरे हो गये थे ॥११०॥ अनुपम क्षमा | |१७२ को धारण करनेवाले वे मुनिराज अपार धैर्य धारण कर तथा प्रसन्नचित्त होकर क्षुधा-तृष्णा आदि समस्त परीषहों पर विजय प्राप्त कर विराजमान थे । उन्होंने क्रोध का नाश कर उत्तम क्षमा धारण की थी, कठिनता को त्याग कर मार्दव धारण किया था, माया का नाश कर आर्जव धारण किया था तथा अधिक बोलने का त्याग कर सत्यधर्म धारण किया था, लोभ को त्याग कर शौच धर्म धारण किया था,
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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