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के लिए श्रुतज्ञान धारक मुनियों के संग अत्यधिक स्नेह रखते थे। उन महाधीर-वीर मुनि ने इस प्रकार 'तीर्थंकर' नाम कर्म का बन्ध करानेवाली षोडश (सोलह) के कारण भावनाओं का सम्यक् प्रकार से विधि वत नियमित मनन एवं चिन्तवन किया, जिसके फलस्वरूप 'तीर्थंकर' नामकर्म का उन्हें बन्ध हुआ। इस 'तीर्थंकर' नामकर्म की महिमा अनन्त है, यह अतिशय पुण्य का योग है। मनुष्य-देव-विद्याधर सब इसे नमस्कार करते हैं तथा यह तीनों लोकों को सुशोभित करने का निमित्त (कारण) है । उन मुनिराज को निर्मल कोष्ठ-बुद्धि, बीज-बुद्धि, पादानुसारिणी बुद्धि तथा सम्भिन्नश्रोत-बुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं । जिस प्रकार राजर्षि अपनी राजविद्याओं के द्वारा समस्त धर्म-अधर्म को समझ लेते हैं, उसी प्रकार ऋद्धियों को धारण करनेवाले उन पूज्य मुनिराज ने इन बुद्धि ऋद्धियों के द्वारा समस्त संसार तथा धर्मअधर्म के स्वरूप को ज्ञात कर लिया था। परमार्थ के ज्ञाता, महान् ऋद्धियों को धारण करनेवाले तथा कर्म रूपी शत्रुओं को पराजित करने में तत्पर वे मुनिराज दुर्धर तप से दीप्तमान थे । वे उत्कृष्ट तप, महा तप, घोर तप, पराक्रम तप तथा उग्र तप का सदैव पालन करते थे । मोक्षप्राप्ति रूपी उत्कृष्ट अभिलाषा को धारण करनेवाले मुनिराज को बिना कामना के ही केवल आत्मशुद्धि से ही अणिमा, महिमा आदि आठों विक्रिया नाम की ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं। मामर्ष-ऋद्धि, क्षेत्र-ऋद्धि, जल्ल, विटू, सर्वोषधि आदि समस्त रोगों को नष्ट करनेवाली तथा संसार-भर का उपकार करनेवाली ऋद्धियाँ भी उनको प्राप्त हुई थीं ॥१०॥ मुनिराज को रस-परित्याग नाम के तप के प्रभाव से अमृतस्रावी, क्षीरस्रावी तथा सर्पिस्रावी नाम की ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं। उन धीर-वीर मुनिराज को परीषहों पर विजय से प्राप्त करने से ही अपार बल प्रकट करनेवाली मनोबल, वचन बल तथा कायबल नामक ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं। अक्षीण ऋद्धि के प्रभाव से उनके अक्षीण अन्न तथा अक्षीण आलय ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं। सो उचित ही है, क्योंकि पूर्व कत महती तपश्चरण का फल अक्षय होता ही है। वे मुनिराज अनुक्रम से अनेक देशों मे विहार करते हुए आहार के
|१७१ लिए श्रीपुर नगर के राजा श्रीषेण के निवास पर पधारे । राजा श्रीषेण ने भी दुर्लभ निधान के समान उन्हें आया देख कर भक्तिपूर्वक "तिष्ठ-तिष्ठ' कह कर योग्य आसन पर स्थापन किया। उन्होंने हार्दिक भक्ति से मुनिराज को प्रासुक एवं मिष्ट आहार विधिपूर्वक दिया, जिससे उनके प्रांगण में पन्चाश्चर्यों की वर्षा हुई। किसी दिन वे मुनिराज आहार के लिए ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक दत्तापुर नगर के राजा नन्दन के निवास
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