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भोगों में मोक्ष के कारणभूत संवेग का चिन्तवन करते थे । वे मुनिराज समस्त प्राणियों के लिए ज्ञान दान, अभय दान आदि दान दिया करते थे तथा विशेषकर मुनियों को ये दान सदैव किया करते थे । वे मुनिराज समस्त कर्मों का विनाश करनेवाली द्वादश प्रकार के तपश्चरण की भावनाओं का सदैव चिन्तवन करते थे । वे संयमी मुनिराज किसी व्याधि आदि के कारण आकुल हुए साधुओं को धर्मोपदेश दे कर उनका कष्ट निवारण किया करते थे । वे चतुर मुनि अपने तथा दूसरे के गुणों की वृद्धि के लिए मोक्ष की कामना रखनेवाले रोगी मुनियों का वैयावृत्य किया करते थे । अरहन्तों की भक्ति करने में तत्पर वे मुनिराज अपने चित्त में सदैव 'अर्हन्' अक्षरों का ध्यान करते थे तथा वचन से भी सदा इन्हीं अक्षरों का जाप किया करते थे । जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वीर्य-इन पन्चाचारों का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों से पालन कराते हैं, उनको आचार्य कहते हैं । उन आचार्य की भक्ति से सर्वदा किया करते वे ॥७०॥ जो स्वयं श्रुतज्ञान रूपी अमृत का पान किया करते हैं एवं भव्यों को उस श्रुतज्ञान रूपी अमृत का पान करवाने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं, उनको उपाध्याय कहते हैं । वे मुनिराज उपाध्यायों की भक्ति भी सदैव किया करते थे । आप्त के वर्णित अनेक तत्वों से परिपूर्ण एवं इन्द्र-नरेन्द्र के द्वारा पूज्य शास्त्रों में भी वे सदैव प्रगाढ़ भक्ति धारण करते थे । वे मुनिराज तृण-सुवर्ण, सुख-दुःख, निन्दा-स्तुति एवं जीवन-मरण में सदा उत्कृष्ट समता भाव रखते थे। तीर्थंकरों के गुणों में अनुरक्त हुए वे मुनिराज सिद्ध पद प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति किया करते थे । वे मुनि मन-वचन-काय से मुक्ति रूपी रमणी के स्वामी पन्च-परमेष्ठियों की त्रिकाल वन्दना सदैव करते थे । अपनी निन्दा-गर्दा आदि में तत्पर रहनेवाले बुद्धिमान एवं प्रमाद रहित वे मुनिराज व्रतों के अतिचार का निवारण करने के लिए प्रतिक्रमण किया करते थे । वे मुनि तपश्चरण पालन करने के लिए योग्य पदार्थों का भी त्याग कर अपनी काया में वैराग्य भाव धारण करते थे । वे मुनि अपने देह से ममत्व त्याग कर तथा दृढ़ स्तम्भ के समान निश्चल होकर अपनी शक्ति के अनुसार मोक्ष के कारणभूत कायोत्सर्ग को धारण करते थे । जो मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिए नियमपूर्वक इन षट (छहों) आवश्यकों का पालन करते हैं, उनको स्वप्न में भी कभी कोई हानि नहीं पहुँच सकती । वे मुनि, तप, ज्ञान आदि सद्गुणों के द्वारा श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा वर्णित रत्नत्रय रूपी मोक्षमार्ग को सदैव प्रकाशित किया करते थे ॥४०॥ धर्म में अनुराग रखनेवाले वे मुनि अपने पापों का विनाश करने
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