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________________ . 444 | रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्नि के सदृश प्रथम शुक्लध्यान धारण करते थे। इस प्रकार वे मुनिराज || अपने अनुज के संग अपनी शक्ति को न शमित (छिपा) कर तीव्र एवं पाप रहित द्वादश (बारह) प्रकार का तपश्चरण करते थे । उन बुद्धिमान ने हिंसां, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-इन पाँचों पापों का मन-वचन-काय एवं कृतकारित अनुमोदना से मरण पर्यन्त त्याग कर दिया था । वे दयालु मुनिराज ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेपण एवं उपसर्ग -इन पाँचों समितियों का विशेष प्रयत्न के साथ पालन करते थे ॥५०॥ तीनों गुप्तियों के पालन करने में तत्पर रहनेवाले वे संयमी मनिराज अपने ध्यान योग के बल से ही मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों का निग्रह करते थे। क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शैय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन-ये बाईस परीषह कहलाते हैं । ये समस्त परीषह दुर्धर हैं, असह्य हैं, मनुष्यों के लिए सहन करना अत्यन्त कठिन हैं, कातरों को भय उत्पन्न करानेवाले हैं एवं अत्यन्त दुःख प्रदायक हैं । परन्तु वे मुनिराज अपने अनुज के संग इन समस्त परीषहों को सहन करते थे । वे धीर-वीर अपने ध्यान रूपी शस्त्र के बल से अत्यन्त कठिन एवं रौद्र उन्नीस परीषहों पर विजय अर्पित करते थे । तदनन्तर उन्होंने अपने गुरु के समीप 'तीर्थंकर' नामकर्म की प्रदायक षोडश कारण भावनाओं का चिन्तवन किया था । उन्होंने सम्यग्दर्शन का विनाश करनेवाली देव मूढ़ता आदि तीनों मूढ़ताएँ नष्ट की थीं एवं बुद्धि को भ्रष्ट करनेवाले जाति-कुल आदि के अष्ट मद नष्ट किए थे । इसी प्रकार उन्होंने मिथ्यात्व आदि से उत्पन्न हुए षट (छः) अनायतनों का त्याग किया एवं शंका आदि अष्ट दोषों का भी त्याग किया। इस प्रकार उन्होंने सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोषों का त्याग किया। चिन्तवन करने में तत्पर रहनेवाले उन मुनिराज ने अपने मन में निःशंकित आदि अष्टांगों को धारण कर सम्यग्दर्शन की विशुद्धि धारण की थी ॥६०॥ मन-वचन-काय की शद्धिपूर्वक मुक्ति-रूपी रमणी को वश में १६९ करनेवाली तीर्थंकर, मुनि तप एवं रत्नत्रय की विनय का उन्होंने चिन्तवन किया था । वे स्वप्न में भी प्रमादों को त्याग कर मोक्ष प्रदायक अष्टादश सहस्र (अठारह हजार) शीलों में कोई अतिचार नहीं लगाते थे । लोक-अलोक को प्रकाशित करनेवाले अंगपूर्व आदि के ज्ञान का वे सर्वदा अध्ययन करते थे तथा न जीवों को प्रशिक्षित करते रहते थे। वे परम ज्ञानी मुनिराज समस्त अकल्याण करनेवाली काया, संसार तथा 444 4
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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