________________
.
4
F
मनुष्यों के लिए कठिन लेकिन लिए सहज एक पक्ष (पन्द्रह दिन), एक मास, दो मास, छः मास एवं एक वर्ष का-ऐसे अनेक प्रकार से अनशन कर तप किया था। वे मेघरथ मुनिराज निद्रा एवं परिश्रम के निवारण के लिए एक ग्रास, दो ग्रास आदि का आहार लेकर अवमोदर्य तप करते थे । वे मुनिराज वृत्तिपरिसंख्यान नामक श्रेष्ठ तपश्चरण करने के लिए भिक्षा के समय अमुक दाता द्वारा मिलेगा तो आहार लेंगे, अमुक आहार मिलेगा तो लेंगे, चातुर्मास में नहीं लेंगे-इत्यादि कठिन प्रतिज्ञाएं कर लेते थे । इन्द्रियों आदि का दमन करने के लिए वे मुनिराज अपने अनुज के संग उष्ण (गर्म) जल के संग अनन्त सुख देनेवाला पवित्र एवं नीरस आहार लेते थे (अथवा उष्ण जल से धोया हुआ आहार लेते थे) वे चतुर मुनिराज ध्यान की सिद्धि के लिए श्मशान, निर्जन वन, सूने घर, गुफा एवं वृक्षों के कोटर आदि में शैय्यासन धारण करते थे । वे मुनि कायक्लेश सहन करने के लिए ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की असह्य किरणों से सन्तप्त पर्वत के ऊपर स्थित शिला पर सूर्य के सन्मुख मुख कर विराजमान होते थे । वर्षा ऋतु की रात्रि में पापों काविनाश करने के लिए पक्षियों के नीड़ों (घोसलों) से भरे हुए एवं तीव्र वायु प्रवाह से कम्पायमान वृक्ष के नीचे विराजमान होते थे । वे धीरवान मुनिराज शीत ऋतु में अपने अनुज के संग हिम से आच्छादित घोर ठण्डे चौहटे में कायोत्सर्ग धारण कर विराजमान होते थे । यदि उनके चरित्र में अकस्मात कोई दोष लग भी जाता था, तो बिना किसी आलस्य के वे उसकी शुद्धि के लिए उसी समय प्रायश्चित करते थे ॥४०॥ वे बुद्धिमान मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप आदि में मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक विद्या आदि अनेक गुण देनेवाला विनय धारणकरते थे । अपने अनुज के संग वे दश प्रकार के ज्ञानी तपस्वी मुनियों की वैयावृत्य करते थे । वे मुनि अज्ञान के निवारण हेतु ज्ञान सम्पादन करने के लिए स्वाध्याय की शुद्धता को प्राप्त हो कर अंगपूर्व एवं प्रकीर्णकों का सदैव पाठ किया करते थे । वे काया से ममत्व त्याग कर समस्त अशुभ कर्म रूपी अग्नि के शमन (बुझाने) के लिए मेघ के समान पक्ष, मास, छः मास, वर्ष पर्यंत का व्युत्सर्ग धारण करते थे । अपने चित्त को धर्म एवं शुक्लध्यान में लगानेवाले शुद्ध बुद्धिवाले वे मुनिराज निन्द्य, आर्त एवं रौद्रध्यानं को कभी स्वप्न में भी हृदय में धारण नहीं करते थे । किन्तु वे मुनिराज चित्त में पदार्थ एवं नय से परिपूर्ण तथा शास्त्रों से उत्पन्न.चारों प्रकार के उत्कृष्ट धर्मध्यान का सदैव चिन्तवन किया करते थे । कभी वे अपने मन के संकल्पों को त्याग कर रत्न के दीपक के समान स्वच्छ एवं कर्म
PF F
444