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________________ FFFFF दूध, दही, घी, तैल, मिष्टान्न आदि रसों का त्याग करना रस-परित्याग व्रत है । पशु, पक्षी, नारी आदि से रहित गुफा आदि एकान्त स्थान में शयन-आसन करना विविक्त-शैय्यासन तप है ॥१०॥ व्युत्सर्ग के द्वारा अथवा वृक्ष के नीचे आतापन योग धारण कर जो दुःख सहन किया जाता है, उसे कायक्लेश तप कहते' हैं। अब अन्तरंग तप का वर्णन करते हैं-प्रायश्चित, विनय; वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग एवं ध्यान-यह षट (छः) प्रकार का अन्तरंग तप कहलाता है । पापों का नाश करनेवाली आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक कायोत्सर्ग, तप, छैद, परिहार, उपस्थापन एवं श्रद्धान-यह दश प्रकार का पापों को शुद्ध करनेवाला प्रायश्चित कहलाता है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि के द्वारा बुद्धिमानों की तथा मुनि गणधरों आदि की मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक विनय करनी चाहिए । कर्मों को नष्ट करने के लिए सज्जनों को आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ज्ञानि, गण, कुल, संघ, साधु एवं मनोज्ञ-इन दश प्रकार के मुनियों की सेवा सुश्रुषा कर वैयावृत्य करना चाहिए । यह वैयावृत्य ही गुणों का सागर है । इन्द्रियों को दमन करने के लिए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेश आदि पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए । धीर-वीर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग कर कायोत्सर्ग धारण करना चाहिए, क्योंकि यह कायोत्सर्ग ही मोक्ष रूपी रमणी का जनक (पिता) है । इसी प्रकार इष्ट-वियोग से उत्पन्न होनेवाले अनिष्ट का नाश करना चाहिए ॥२०॥ शुक्लध्यान के भी चार भेद हैं-पहिला पृथकत्व-वितर्क विचार, दूसरा एकत्व-वितर्क विचार, तीसरा सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाती एवं चौथा व्युपरत-क्रिया -निवृत्ति ! ये चारों प्रकार के महाध्यान समस्त कर्म रूपी ईंधन को विदग्ध (जलाने) करने के लिए अग्नि के समान हैं । इसलिए मुनिराज को मोक्ष प्राप्त करने के लिए चित्त को शुद्ध कर इनका ध्यान करना चाहिए । विवेकी पुरुषों को पूर्ण सुख प्राप्त करने के लिए अपनी शक्ति प्रकट कर द्वादश (बारह) प्रकार का पूर्ण तपश्चरण करना चाहिए । जो मनुष्यों पापों को शान्त करने के लिए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक अपनी शक्ति के अनुसार पाप रहित पूर्ण तपश्चरण का पालन करते हैं, वे अनन्त सुख-सागर को प्राप्त करते हैं एवं स्वयं मुक्ति रूपी रमणी के कंत (पति) बन जाते हैं ॥३०॥ मनिराज मेघरथ ने अपने अनुज दृढ़रथ के संग मोक्ष प्राप्ति के लिए जो तपश्चरण का अनुष्ठान किया था, उसका मैं अब संक्षेप में वर्णन करता हूँ मुनिराज ने सामान्य
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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