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धर्म को मैं सिद्ध पद प्राप्त करने के लिए नमस्कार करता हूँ। धर्म के अतिरिक्त इस संसार में अन्य कोई मित्र नहीं है । धर्म की जड़ दया है, इसलिए मैं अपना चित्त धर्म में ही लगाता हूँ। हे धर्म ! संसार के भय से मेरी रक्षा कर । भगवान श्री शान्तिनाथ इन्द्र-नरेन्द्र आदि सबके द्वारा पूज्य हैं । ज्ञानी पुरुष श्री शान्तिनाथ भगवान का ही आश्रय लेते हैं, संसारी जीवों को मोक्ष की प्राप्ति श्री शान्तिनाथ भगवान से ही होती है, इसलिए मैं चिर-शान्ति प्राप्त करने के लिए भगवान श्री शान्तिनाथ को ही नमस्कार करता हूँ। भगवान श्री शान्तिनाथ से ही यह मोक्ष मार्ग सदा वृद्धि को प्राप्त होता है, श्री शान्तिनाथ के अनन्त गुण हैं, इस संसार में मेरी आत्मा श्री शान्तिनाथ में ही निवास करती है-हे श्री शान्तिनाथ भगवान ! आप मेरे समस्त पापों के समूह को नष्ट कीजिए ।
श्री शान्तिनाथ पुराण में महाराज मेघरथ के वैराग्य प्रगट होने वाला तथा दीक्षा धारण करनेवाला ग्यारहवाँ अधिकार समाप्त ॥११॥
बारहवाँ अधिकार मैं अपने अशुभ कर्मों के प्रकोप को शान्त करने के लिए संसार मात्र को शान्त करानेवाले समस्त पापों को नष्ट करनेवाले एवं तीर्थंकर, चक्रवर्ती, कामदेव-इन तीनों पदों से सुशोभित श्री शान्तिनाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अथानन्तर-मुनिराज मेघरथ छः प्रकार के बाह्य तपश्चरण का सदैव पालन करने लगे । इन द्वादश (बारह) प्रकार के तपश्चरण.का (जो मुनिराज मेघरथ ने पालन किए थे) मैं अपनी शक्ति के अनुसार संक्षेप में वर्णन करता हूँ। अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त शैय्यासन, कायक्लेश-यह छः प्रकार का बाह्य तपश्चरण कहलाता है, आभ्यन्तर तपश्चरण का कारण है । अन्न, पान, खाद्य, स्वाद्य-इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन (उपवास) तप कहलाता है । तपश्चरण पालन करने के लिए अपनी क्षुधा से कुछ कम आहार लेना अवमोदर्य तप है, यह अवमोदर्य तप अनेक प्रकार से होता है । आहार लेने के लिए एक ही घर पर जाने का नियम अथवा एक ही गली में जाने का नियम अथवा चौराहे तक जाने का नियम इस प्रकार विलक्षण नियम पालन करने का नाम वृत्तिपरिसंख्यान तप है । यह तप इच्छाओं का सर्वथा नाश करता है । इन्द्रियों को वश में करने के लिए
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