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________________ . 4 4444 सुनिए! यदि राज्य उत्तम है, तो फिर आप ही.इसे क्यों त्यागते हैं ? ॥२९०॥ पापों को उत्पन्न करनेवाली राज्य-सम्पदा में जो दोष आपने देखा है, वही दोष बुद्धि बल से मैंने भी विशेष रीति से देख लिया है। जिस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष इस संसार में उच्छिष्ट (वमन किए हए) आहार की कामना नहीं रखते हैं; उसी । प्रकार आपके द्वारा त्यागे हुए इस राज्य-ऐश्वर्य को मैं कभी भी नहीं भोग सकता । दीक्षा धारण करने के लिए तो इस राज्य को ग्रहण करके भी कालांतर में तो त्यागना पड़ेगा; इसलिए तपश्चरण धारण करनेवालों को पूर्व (पहिले) से ही इसका ग्रहण न करना ही सब ये श्रेयस्कर है । क्या पाप से भयभीत बुद्धिमान | विवेकी प्राणी पहिले अपने सर्वांग को पाप-रूपी पेक (कीचड़) में लपेट कर फिर उस कीचड़ को | धोने के लिए स्वयं स्नान करते हैं ? इसलिए मैं भी मोक्ष प्राप्त करने के लिए महाशत्रु मोह का नाश कर आज आपके साथ ही पापों को विनष्ट करनेवाले उत्तम संयम को धारण करूंगा।' तब महाराज मेघरथ ने अपने अनुज को राज्य से परांगमुख समझकर अपने पुत्र मेघनाद को विधिपूर्वक राज्य सौंप दिया। फिर शीघ्र ही वे मोक्ष प्राप्त करने के लिए विपुल विभूति सहित अनेक नृपतियों एवं अनुज के संग अपने पिता घनरथ तीर्थंकर के समीप प्रसन्न होकर पहुँचे । वहाँ जाकर उन्होंने नवधा-भक्ति से मस्तक नवाकर तीर्थंकर को नमस्कार किया एवं जिनवाणी के अनुसार मन-वचन-काय से बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग किया । इस प्रकार महाराज मेघरथ ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए सप्त सहस्र नृपतियों एवं अनुज दृढ़रथ के संग देवों के द्वारा भी पूज्य निग्रंथ जिनमुद्रा धारण की । इस प्रकार महाराज मेघरथ ने पुण्य कर्म के उदय से तीर्थंकर द्वारा वर्णित तपोमुद्रा धारण कर ली एवं वे सब को धर्मोपदेश देते हुए अथवा दूसरों को चारित्र पालन कराते हुए निर्मल चारित्र से उत्पन्न धर्म, अर्थ काम-इन तीनों पुरुषार्थों के सारभूत सुराज्य (मुनि अवस्था) का प्रतिदिन अनुभव करते थे ॥३००॥ महाराज मेघरथ को धर्म के प्रभाव से ही ऐसा राज्य प्राप्त हुआ था, जिसकी सेवा अनेक नृपति करते हैं एवं जो सुख का वास स्थान है । धर्म के ही प्रभाव से उन्होंने चन्द्रमा के समान निर्मल राग रहित चारित्र धारण किया था एवं धर्म के ही प्रभाव से उन्हें ज्ञान रूपी नेत्र प्राप्त हुआ था । यही समझ कर विद्वान व्यक्तियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए पापों का विनाश कर परम्परा से सुख प्रदायक धर्म का ही सदैव पालन करते रहना चाहिए। यह धर्म संसार में सब जीवों का हित करनेवाला है, विद्वान धर्म का ही पालन करते हैं, धर्म से ही सर्वप्रकारेण सुख प्राप्त होते हैं, उसी FEE १६५
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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