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________________ . 2 4 EFFFF. मनुष्यों का प्राण हरण करता है, दसरे जन्म में नहीं; परन्तु विषयों से उत्पन्न हुआ महानिंद्य सुख रूपी विष मनुष्यों को जन्म-जन्मांतर में नरक -तिर्यन्च गतियों के अपार दुःख देता है । पाप की ओर ले जानेवाले ये सब भोग सर्प से भी अधिक भयानक हैं; क्योंकि सर्प तो इसी भव में प्राणों का हरण करता है, परलोक में नहीं; परन्तु अनंत दुःख एवं क्लेश देनेवाले ये भोग नरकादि दुर्गतियों में अनंत भवों तक प्राणियों के प्राणों का हरण किया करते हैं । जब तक सांसारिक सुखों में मनुष्यों की लालसा बनी हुई है, तब तक उनको मोक्ष सुख भला किस प्रकार मिल सकता है ? समस्त दुःखों के कारण ये भोग व्याधियों से भी अधिक क्लेशदायक हैं क्योंकि व्याधि तो मनुष्यों को कुछ काल तक ही कष्ट देती है; परन्तु ये दुष्ट एवं नीच भोग प्राणियों को चारों गतियों में निरन्तर दुःख, शोक, भय, क्लेश, अपयश एवं पाप ही दिया करते हैं ॥१८०॥ जिनका हृदय भोगों में आसक्त है, अशुभ कर्मों से छले (ठगे) हुए ये जीव अकेले ही सब प्रकार के दुःख देनेवाले अनादि संसार रूपी मार्ग में सदा परिभ्रमण किया करते हैं। जो तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पूर्वकाल में मोक्ष जा चुके हैं, वे केवल तपश्चरण के द्वारा ही गए हैं । जो सत्पुरुष इस संसार से अब मोक्ष जायेंगे, वे भोगों को त्याग कर चारित्र का पालन करने से ही जायेंगे । यही समझ कर मोक्ष की अभिलाषा करनेवाले पुरुषों के का नाश करने के लिए एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम इन समस्त भोगों का त्याग व्याधि, सर्प एवं शत्रु के समान करना चाहिए । बिना दीक्षा धारण किए तीर्थंकरों को भी चिरस्थायी सुख (मोक्ष) कभी प्राप्त नहीं होता है । यही समझ कर मोक्ष की अभिलाषा करनेवाले पुरुषों को यथा शीघ्र निग्रंथ जिन-दीक्षा धारण कर लेनी चाहिए।' इस प्रकार अनेकानेक युक्तियों से चिन्तवन कर महाराज मेघरथ को वैराग्य प्राप्त हुआ एवं दीक्षा लेने की अभिलाषा रखते हुए उन्होंने अपने पूज्य पिता (तीर्थंकर ) को नमस्कार किया । मोक्ष प्राप्त करने के |१६४ लिए वे घनरथ अपने हृदय में अनित्य, अशरण आदि द्वादश (बारह) अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन करने लगे एवं अनेक सामन्त राजाओं के संग अपने नगर में लौट आए । स्वयं संयम धारण करने के अभिलाषी मेघरथ अपने अनुज दृढ़रथ से कहने लगे-'हे भ्राता ! आज तू समस्त विभूति के साथ इस राज्य को स्वीकार कर ।' इसके प्रत्युत्तर में मोक्ष की कामना करनेवाला वह दृढ़रथ कहने लगा-'हे अनुज ! मेरा निवेदन, 44
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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