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________________ Fb P?FF प्राणियों को इससे सुख कैसे मिल सकता है ? यह काया अत्यन्त अशुद्ध है, अशुद्ध द्रव्यों से भरी हुई है । इसमें केवल मल-मूत्र ही नहीं भरा है, अपितु यह अशुद्ध पदार्थों का आगार ही है। यह देह अन्न, पान, ताम्बूल आदि पौष्टिक पदार्थों को भी अपने संसर्ग से अपवित्र एवं घृणा के योग्य बना देती है। यह मनुष्यों की काया इन्द्रधनुष के समान अनित्य है, पाप की खानि है एवं जल, अग्नि, शस्त्र या मृत्यु के संयोग से क्षण भर में नष्ट हो जाती है ॥२५०॥ इस देह-रूपी गृह में भूख, प्यास, काम, व्याधि, क्रोध रूपी अग्नियाँ सर्वदा प्रज्वलित रहती हैं, फिर भला चतुर पुरुष इससे किस प्रकार स्नेह कर सकता है ? यह मनुष्यों की काया वस्त्र-आभरण आदि से सुशोभित हुई बाह्य (ऊपर) से ही मनोहर दिखती है, यदि इस का अन्तस (भीतर) में निरीक्षण किया जाए तो मदिरा (शराब) के घट के समान अत्यन्त वीभत्स एवं अशुभ प्रतीत होगी। जिस प्रकार चाण्डाल के निवास-गृह में कुछ भी सारभूत परिलक्षित नहीं होता; उसी प्रकार अस्थि, चर्म एवं विष्टा आदि से भरी हुई इस काया में भी कभी सार परिलक्षित नहीं हो सकता । यदि इसको एक दिन भी अन्नादिक भोजन न मिले तो फिर यह अग्नि में पड़े हुए सूखे पत्ते के समान शीघ्र ही क्षीण हो जाती है । अन्न-पान आदि पदार्थों से प्रति दिन इस काया का पालन-पोषण किया जाता है, तथापि यह काया जीव के साथ नहीं जाती, शठ (दुष्ट) के समान उसे त्याग कर यहाँ ही रह जाती है । जो मूढ़ रागी प्रति दिन इस काया को पोषण करते हैं, उनको यह काया शत्रु के समान केवल व्याधियों का पुंज ही देती है । परलोक में यह काया उनको नरक योनि अथवा तिर्यन्च योनि देती है जो कि समस्त अशुद्धता की खानि है एवं काम इन्द्रियों की लालसा रूपी शत्रुओं से भरी हुई है । परन्तु जो लोग तपश्चरण, व्रत एवं कायक्लेश आदि परीषहों से इसको तपाते हैं, कृश करते हैं, उनको स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्राप्त होते हैं । इससे अधिक आश्चर्य भला अन्य क्या होगा? इसलिए जब तक क्षुधित यमराज इस काया का बलात् भक्षण करने नहीं आता, तब तक प्रवीण (चतुर) पुरुषों को इस काया से तप-यमधर्म आदि पुण्य कर्म कर लेने चाहिए । जब तक व्याधि रूपी अग्नि इस काया-रूपी कुटिया को विदग्ध नहीं कर देती, तब तक जीवों को अपना हित साधन कर लेना चाहिए, क्योंकि फिर इस काया से कुछ भी सार्थक प्रयोजन करना साध्य (सम्भव) नहीं हो सकेगा ॥२६०॥ जब तक वृद्धावस्था रूपी राक्षसी इस काया का भक्षण नहीं कर लेती, तब तक जीवों को दीक्षा धारण कर स्वर्ग एवं मोक्ष सिद्ध (प्राप्त) कर १६२
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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