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के गोत्र में कलंक लगानेवाली व्याभिचारिणी पुत्रियाँ है तथा किसी के सेवक ही शत्रु हो रहे हैं तथा घात के लिए सदा प्रस्तुत रहते हैं । किसी के नरक के दुःखों से भी बढ़ कर मानसिक पीड़ा है तथा किसी के क्रोध-लोभ आदि की बाधा सर्वदा बनी रहती है। देखो, भरत चक्रवर्ती चरमशरीरी था, तथापि उसे अनुज के द्वारा मान भंग होने का महा दुःख प्राप्त हुआ था । जब चक्रवर्ती की यह दशा है, तब फिर कर्मों के अधीन अशुभ कर्मों से घिरे हुए जन्म-जरा आदि दोष सहित तुच्छ पुण्यवाले अन्य प्राणी भला कैसे सुखी हो सकते हैं ? जिस प्रकार केले के थम्भ में कुछ सार नहीं है तथा न इन्द्रजाल में ही कुछ सार है, उसी प्रकार तीनों लोकों में कुछ भी सार नहीं है । इस संसार में गृह, राज्य, काया, पत्नी, लक्ष्मी, पुत्र, सेवक || आदि कुछ भी नित्य नहीं है । जो गृह अग्नि आदि के संयोग से क्षण भर में नष्ट हो जाता है, जलद (बादल) के समान क्षणभंगुर उस गृह में भला कौन बुद्धिमान विश्राम करेगा? राज्य भी दूब के पत्ते पर रक्खी हुई प्रातःकालीन ओस की बूंद के समान चन्चल है, पापों से परिपूर्ण है एवं शत्रुरूपी भय दुःखों का कारण है। पत्नी भी मोह रूपी जल से सींची हुई अशुभ बेल के समान है एवं नरकादि फलों की प्रदायक है । प्राणियों के लिए सहोदर भी बन्धन के समान एवं पाप के निमित्त (कारण) हैं तथा धनधान्य आदि का क्षय करनेवाले पत्र भी संसार में फंसाने के लिए जाल के समान हैं ॥२४०॥ जो बान्धव-स्वजन अपने मृतक कुटुम्बी का श्मशान में दाह कर चले जाते है । एवं फिर कभी मुड़कर भी देखते नहीं, वे भला अपने कैसे हो सकते हैं ? चक्रवर्ती आदि की राज्यलक्ष्मी विद्युत की रेखा के समान चंचल है, मनोहारिणी है एवं मनुष्यों के लिए नरक रूपी गृह के द्वार समान है । इस प्रकार संसार की विचित्रता एवं पदार्थों की अनित्यता को समझ कर बुद्धिमान प्राणी संसार को त्याग कर तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस काया के नव द्वारों से दुर्गन्धपूर्ण अशुभ मल स्वतः बहता रहता है, यह देह विष्टा का आगार है एवं सब ओर से असंख्य कीड़ों से भरी हुई है । यह देह नरक के समान है, शुक्र शोणित से भरी हुई है, सप्त धातुओं से निर्मित है, निन्द्य है, घृणा के योग्य है एवं दुःख का स्थान है । यह काया समस्त अशुभ व्याधि रूपी सर्पो की बाँबी (बिल) है, अशुभ कर्मों का निमित्त (कारण) है, सब प्रकार के दुःखों का निधान है एवं क्षुधा-पिपासा आदि से सदा दुःखी हो रहती है। यह देह काम-रूपी अग्नि के सदैव जलती रहती है, समस्त पापों का निमित्त है एवं कर्म से उत्पन्न हुई है, फिर भला इस संसार में
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