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________________ REF. PF 5 एवं परलोक दोनों में सुख देनेवाली गृहस्थों की कथाएँ कहीं । गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया तथा कन्वय क्रिया-ये तीन प्रकार की क्रियाएँ होती हैं । अब इनकी संख्या बतलाते हैं । गर्भाधान से ले कर निर्वाण पर्यन्त जो क्रियाएँ सम्यग्दर्शन पूर्वक की जाती हैं। उन्हें गर्भान्वय क्रियाएँ कहते हैं, उनकी संख्या तिरेपन है । अवतार से लेकर मोक्ष प्राप्त होने तक मुक्ति-सिद्ध करनेवाली जो क्रियाएँ हैं, उन्हें दीक्षान्वय क्रियाएँ कहते हैं; उनकी संख्या अड़तालीस है । श्री जिनेन्द्रदेव ने पूर्ण कल्याण प्राप्त करने के लिए सद्गृहित्व से लेकर सिद्ध-पर्यन्त सात कर्जन्वय क्रियाएँ बतलाई हैं। श्री घनरथ जिनेन्द्रदेव ने इन सब क्रियाओं का स्वरूप, विधि एवं फल संक्षेप में कहा तथा सद्धर्म का विस्तृत वर्णन किया । महाराज मेघरथ ने घनरथ तीर्थंकर के मुखकमल से क्रियाओं का स्वरूप एवं स्वर्ग-मोक्ष प्रदायक गृहस्थों के धर्म का स्वरूप सुना । फिर उन्होंने भक्तिपूर्वक उनको नमस्कार किया एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपने हृदय को अत्यन्त शान्त कर संसार-देह-भोग का स्वरूप बारम्बार चिन्तवन करने लगे ॥२२०॥ वे विचार करने लगे-'संसार एक समुद्र के समान है । यह अत्यन्त दुःसह है, भीषण है, विषम है, दुःख रूपी मगरमच्छों से भरा हुआ है, जन्म-मरण एवं जरा (बुढ़ापा) ही इसके आवर्त (भँवर) है; चारों गतियाँ ही इसकी चन्चल लहरें हैं, नरक ही इसका बड़वानल-कुम्भ है; यह अत्यन्त नि:स्सार है, अपार है। समस्त पापों का समूह ही इसका जल है, जीवों का भव-परिभ्रमण ही इसका फल है । यह अनादि है, अनन्त है, धीर है, उत्पाद-व्ययध्रौव्य-स्वरूप है, सब तरह के दुःखों का निधान है, अत्यन्त निन्द्य है एवं भव्य जीवों के लिए अत्यन्त भयंकर है । इसमें अशुभ कर्म रूपी साँकल से जकड़े हुए जीव धर्म रूपी जलपोत का सहारा न पाकर सर्वदा भवसागर में डूबते एवं उतराते रहते है । धर्म के बिना अनादि काल से वे जीव कर्मों के द्वारा ठगे गए हैं। इसीलिए दुःख रूपी जन्तुओं से भरे हुए संसार रूपी वन में सर्वदा भ्रमण करते हैं इस संसार में मुनियों के अतिरिक्त अन्य कोई भी मनुष्य सुखी नहीं है । किसी को कोढ़ आदि रोगों से उत्पन्न होनेवाली तीव्र पीड़ा है, किसी को दरिद्रता का दुःख है, किसी को भय से दुःख हो रहा है, किसी को मानभंग होने का दुःख है एवं किसी को पुत्र-पत्नी आदि के वियोग से उत्पन्न होनेवाला शोक का दुःख है । किसी के पुत्र दुराचारी एवं दुर्व्यसनी हैं तथा किसी की पत्नी दुष्टा, दुराचारिणी एवं भयानक है । किन्हीं के भ्राता दुष्ट शत्रुओं के समान हैं, किसी का पिता दुष्ट है एवं किसी की माता व्यभिचारिणी है ॥२३०॥ किसी |१६०
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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