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________________ FFFFFF उपदेश दिया एवं कहा-'हे पुत्र ! सुनों मैं श्रावकों के आचरण को सूचित करनेवाले उपासकाध्ययन नामक सप्तम अंग को पूर्ण रूप से कहता हूँ । सर्वप्रथम श्रावकों को शंकादि दोषों से रहित तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करनेवाले सम्यग्दर्शन को धारण करना चाहिए, क्योंकि यही सम्यग्दर्शन समस्त श्रेष्ठ व्रतों का मूल कारण है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत आदि बारह व्रत कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त श्रावकों को धर्मध्यान धारण करने के लिए आर्तध्यान को त्याग कर तीनों समय व्रत रूप उत्तम सामायिक करना चाहिए ॥२००॥ चतुर पुरुषों को अपने कर्म नष्ट करने के लिए गृहस्थी के व्यापार त्याग कर पर्व के दिनों में नियमपूर्वक सदैव प्रोषघोपवास करना चाहिए । बुद्धिमानों को सचित्त, छाल, पत्ते, कन्दमूल, फल एवं बीज नहीं खाना चाहिए तथा अग्नि पर बिना पका हुए अप्रासुक जल का त्याग कर देना चाहिए । सूक्ष्म जीवों की दया पालन करने के लिए अन्न, पान, स्वाद्य तथा खाद्य-इन चारों प्रकार का आहार रात्रि में कभी नहीं करना चाहिए । श्री जिनेन्द्रदेव ने जघन्य श्रावकों के धर्मसेवन करने के लिए छः प्रतिमायें निरूपण की हैं । ये प्रतिमायें सुगम हैं तथा स्वर्ग में सीढ़ी के समान हैं । जो पुरुष समस्त नारियों को अपनी माता, भगिनी तथा पुत्री के समान देखता है, उसके निर्मल ब्रह्मचर्य प्रगट होता है । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि समस्त प्रकार का आरम्भ पाप का कारण है । इसलिए मन-वचन-काय से उसका त्याग कर देना चाहिए । द्रव्य, धान्य, सुवर्ण आदि से उत्पन्न होनेवाला परिग्रह अनेक प्रकार के अशुभों की खानि है; इसलिए आवश्यक वस्त्रों के अतिरिक्त शेष समस्त परिधानों (वस्त्रों) का त्याग कर देना चाहिए । गृहस्थों की ये तीन प्रतिमायें मध्यम कहलाती हैं । प्रतिमायें हृदय में वैराग्य धारण करनेवालों को मोक्ष का सुख देनेवाली हैं । आहार, गृहस्थी, व्यापार तथा विवाहादि कार्यों में चतुर (प्रवीण) पुरुषों को कभी सम्मति नहीं देनी चाहिए, क्योंकि इनमें सम्मति देना पाप का कारण है । पापों को शान्त करने के लिए तथा धर्म की सिद्धि के लिए धन्य (दूसरे ) के गृह पर कृतकारित आदि दोषों से रहित, स्वाद रहित, पाप रहित, भिक्षा में प्राप्त शुद्ध भोजन करना चाहिए ॥२१०॥ श्री जिनेन्द्रदेव ने इन दोनों ही प्रतिमाओं को उत्कृष्ट बताया है। श्रावकों के लिए ये दोनों प्रतिमाएँ स्वर्ग-मोक्ष का निमित्त कारण हैं। जो बुद्धिमान उपरोक्त एकादश (ग्यारह) प्रतिमाओं का पालन करता हैं, वह सोलहवें स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा अनुक्रम से मोक्ष में जाकर विराजमान होता है।' इस कथन के उपरांत श्रीजिनेन्द्रदेव ने अपने पुत्र के सामने इहलोक 464 17. १५९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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