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________________ ने कहा-'मैं स्नान एवं श्रृंगार से निवृत्त होकर आती हूँ, तब तक उन्हें प्रतीक्षा कक्ष में बैठाओ' ॥१८०॥ इसके उपरान्त रानी ने रागी जनों को अनुरन्जित करनेवाला अपना श्रृंगार किया तथा उन दोनों को बुलवा कर अपना लावण्य प्रदर्शित किया । तब उन्हें अवलोक कर उन देवियों ने टिप्पणी की-'आपके देह की कान्ति जो स्नान पूर्व थी, वह अब वैसी नहीं रही । उसमें कुछ न्यूनता की गई है, इसमें कोई सन्देह नहीं।' देवियों के ऐसे वचनों को सुन रानी प्रियमित्रा ने इस सम्बन्ध मे सत्यासत्य का निश्चय करने के लिए महाराज मेघरथ की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा । महाराज मेघरथ ने कहा-'हे कान्ते ! कर्मों के उदय से तेरे मुखकमल की कान्ति पहिले की-सी नहीं है, पूर्व की अपेक्षा से अवश्य कुछ न्यूनता आई है।' यह सुनकर देवियों ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रगट किया, अपने आने का रहस्य बतलाया एवं अपने | चित्त में विचार करने लगीं-'इस क्षणभंगुर रूप को धिक्कार है ! इस संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है । रूप, लावण्य, सौभाग्य, काया एवं साम्राज्य सब काल के मुख में पड़ कर विकृत हो ही जाता है।' इस प्रकार चित्त में विचार कर एवं विरक्त होकर उन देवियों ने दिव्य वस्त्र, आभूषण एवं माला से रानी प्रियमित्रा को सम्मानित किया एवं तदुपरान्त अपनी कान्ति से दिशाओं को व्याप्त करती हुई स्वर्ग को लौट गईं। महारानी प्रियमित्रा देवियों की उक्ति से बहुत खेद-खिन्न हुई एवं उस सती के हृदय में बहुत शोक हुआ । रानी को शोकातुर देख महाराज मेघरथ ने अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहा-'हे प्रिये ! क्या तू नहीं जानती कि यह चर-अचर संसार नित्यानित्यात्मक है ? इसमें कोई पदार्थ नित्य नहीं है ॥१९०॥ इसलिए तुझे शोक नहीं करना चाहिए ।' इस प्रकार महाराज ने उसे आश्वासन दिया एवं राज्य-भोग-रमणी आदि समग्र बंधनों से वे अत्यन्त विरक्त हो गए । दूसरे दिन महाराज मेघरथ अपने समस्त परिवार के संग अपने पिता तीर्थंकर घनरथ की वन्दना करने के लिए मनोहर नामक उद्यान में गए । वहाँ पर सुर-असुर आदि से घिरे हुए पूज्य घनरथ तीर्थंकर सिंहासन पर विराजमान थे । महाराज मेघरथ ने सारे परिवार के साथ उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, उनको नमस्कार किया, बड़ी भक्ति से उनकी पूजा की एवं उत्तम स्तोत्रों से उनकी स्तुति की । फिर महाराज मेघरथ ने सब जीवों के हित की कामना करते हुए उनसे श्रावकों की क्रियाएँ पूछी । सो उचित ही है, क्योंकि सज्जनों की चेष्टाएँ प्रायः कल्पवृक्षों के समान परोपकार के लिए ही होती हैं । तीर्थंकर घनरथ के भव्य पुरुषों को धर्म की प्राप्ति करवाने के लिए अपनी सर्वभाषामयी ध्वनि से 34 Fb F F |१५८
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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