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________________ हृदय में विराजमान कर विधिपूर्वक अपने प्राण त्यागे । संन्यास धारण करने के कारण प्राप्त पुण्य कर्म के उदय से वे दोनों ही पक्षियों के जीव देवारण्य नामक वन में उत्तम विभूति को धारण करनेवाले सुरूप एवं अतिरूप नाम के देव हुए ॥१३०॥ वे दोनों ही अपने अवधिज्ञान से पूर्व भव का सम्पूर्ण वृत्तांत ज्ञात कर राजा मेघरथ के समीप आए एवं उनको नमस्कार कर उनकी स्तुति करने लगे- 'हे विद्वानों में श्रेष्ठ ! आप धर्म की प्राप्ति कराने में बड़े ही चतुर हैं एवं मेघ के समान परोपकार करने के कारण है । हे देव ! आप श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा वर्णित आगम के ज्ञाता हैं, तत्वों के मर्मज्ञ हैं, सम्यग्दर्शन आदि रत्नों से विभूषित हैं एवं शील के सागर हैं । हे देव ! आप के प्रसाद से ही हम दोनों तिर्यन्च योनि से मुक्ति प्राप्त कर शुभ कर्मोदय एवं दिव्य गुणों को धारण करनेवाले देव हुए हैं। इसलिए अनेक गुणों को धारण करनेवाले आप ति ही हमारे इस जन्म के गुरु हैं, आप ही हमारे लिए नमस्कार करने योग्य हैं एवं आप ही विद्वानों द्वारा पूज्य हैं' ॥१४०॥ इस प्रकार सार्थक वाक्यों से उनकी स्तुति कर बहुमूल्य दिव्य माला - वस्त्र आभूषणों से उनकी अभ्यर्थना की, भक्तिपूर्व उनकी वन्दना की, बारम्बार उनकी प्रशंसा की एवं फिर मस्तक नवा कर उनको नमस्कार कर वे दोनों देव अपने स्थान को प्रस्थान कर गए । ना थ अथानन्तर- एक दिन सब परिग्रहों से रहित चारण मुनि दमवर आहार लेने के निमित्त महाराज मेघरथ पु के महल पर पधारे । महाराज मेघरथ ने दुर्लभ निधि के समान उन्हें आया देखकर अतीव प्रसन्नता 'तिष्ठ तिष्ठ' कह कर उनको योग्य आसन पर स्थापित किया । तदनन्तर दाता के सप्त गुणों से विभूषित राजा मेघरथ ने भक्तिपूर्वक प्रतिग्रह आदि पुण्य उपार्जन करनेवाली नव प्रकार की विधि से काया का पोषण करनेवाला शुद्ध, प्रासुक, मधुर उत्तम, निर्दोष तथा तृप्तिदायक आहार उन मुनिराज को दिया । उसी समय उस आहार से दान अर्जित पुण्य कर्म के उदय से अनेक गुणों के स्थानभूत राजा मेघरथ के महल के प्रांगण में रत्नवृष्टि, आदि पन्चाश्चर्यों की वर्षा हुई । पात्रों को दान देने से जिस प्रकार इस लोक में अनेक प्रकार के रत्नों की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार परलोक में भी बुद्धिमानों को भोगभूमि, स्वर्ग, मोक्ष की महाविभूति प्राप्ति होती है। ऐसा समझ कर गृहस्थों को लक्ष्मी का स्थानभूत एवं इहलोक-परलोक दोनों में सुख का सागर तुल्य आहार दान मुनिराज को सदैव देते रहना चाहिए । इस प्रकार श्री जिनेन्द्रेदव की भक्ति में तत्पर रहनेवाले महाराज मेघरथ दान-पूजा आदि सत्कर्म कर तथा पर्व के दिवस प्रोषधोपवास १५५ 9464 श्री शां ति ना थ रा ण पु रा ण
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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