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करनेवाला है। यह कबूतर भी दान में देने योग्य नहीं है, क्योंकि यह भद्र है, केवल अन्न के दाने चगता है, भय से इसका सारी काया काँप रही है। यह कबूतर क्षुद्र जीव है एवं अपनी शरण में आया है। जो मनुष्य शरण में आए हुए भयभीत पशु को मित्र या शत्रु को दान में दे देते हैं; संसार में वे सब वे नीच हैं, उनके समान अन्य कोई नीच नहीं है ॥१३०॥ भय से आतंकित यह कबूतर अपना शरणागत है, इसलिए इसे गीध को कभी नहीं देना चाहिए । अत्यन्त रौद्र परिणामों को धारण करनेवाले इस गीध का जीना या मरना जो कुछ उसके कर्म के उदय के अनुसार होगा, वही होगा । क्योंकि इस संसार में पुण्य-पाप को धारण करनेवाले जीव सदैव कर्मों के उदय से मरते हैं अथवा अपने कर्मों के उदय से ही उत्पन्न होते हैं । रौद्र परिणामों को धारण करनेवाले कितने ही जीव पाप कर्म के उदय से परस्पर एक-दूसरे का भक्षण करते हैं अथवा जातिगत शत्रुता अथवा अन्य शत्रुता के कारण परस्पर संग्राम करते हैं । इसलिए धर्मात्मा जीवों को धर्म की प्राप्ति एवं दया पालन करने के लिए भयग्रस्त जीवों की प्रतिदिन रक्षा करनी चाहिए । श्री जिनेन्द्रदेव ने जीवों पर दया करना ही धर्म बतलाया है, इसलिए इस कबूतर की हमें रक्षा करनी चाहिए।' इस प्रकार राजा मेघरथ का निर्णय सुन कर उस देव को निश्चय हो गया कि उनके विषय में जो कुछ सुना था, वह अक्षरशः सत्य है । उसने जाकर भक्तिपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार किया तथा उनके गुणों की स्तुति की । वह कहने लगा-'हे देव ! आप महान् पुरुषों के द्वारा भी पूज्य हैं, दान आदि की विधि के ज्ञाता आप ही हैं । आप देवों के द्वारा स्तुति करने योग्य हैं एवं तीनों ज्ञान रूपी नेत्रों से सर्वदर्शी हैं । हे देव ! हे नराधीश ! स्वर्ग में भी आपकी कीर्ति देवों के कर्ण-कुण्डलों के सदृश सुशोभित है, इसलिए आपको धन्य है।' इस प्रकार उस ज्योतिषी देव ने महाराज मेघरथ की स्तुति की । स्वर्ग में उनके विषय में जो चर्चा हुई थी, वह समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । दिव्य वस्त्र, भूषण, माला आदि से उनकी पूजा की, नम्र एवं शुभ वचनों से बारम्बार उनकी प्रशंसा की, फिर वह उनको नमस्कार कर प्रसन्नता
१५४ के साथ अपने स्थान को लौट गया । गीध एवं कबूतर दोनों ने अपने पूर्व भव की शत्रुता की कथा सुनकर तत्काल ही अपनी परस्पर शत्रुता त्याग दी । उन दोनों ने अनेक प्रकार से अपनी आत्मा की निन्दा की, । संसार से विरक्ता धारण की एवं समस्त प्रकार के आहार को त्याग कर सर्वदा के लिए अनशन (उपवास) व्रत धारण किया। उन्होंने अपनी धीरता-वीरता को प्रगट कर संन्यास धारण किया एवं श्री जिनेन्द्रदेव को
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