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________________ प्राप्त करनेवाले हैं, द्वादश (बारह) प्रकार का तपश्चरण करनेवाले हैं, देह के संस्कार से रहित हैं, काम एवं इन्द्रिय रूपी मदोन्मत्त गजराजों से पराजित करने के लिए सिंह के समान हैं, सप्त ऋद्धियों से विभषित हैं, इन्द्र-नरेन्द्र आदि सब के द्वारा पूज्य हैं, द्वादशांग श्रुतज्ञान रूपी महासागर के मध्य में क्रीडा करनेवाले हैं, त्रिकाल (तीनों समय) योगों में आसक्त रहनेवाले हैं, मोक्ष की कामना रखनेवाले हैं, वन में निवास करनेवाले हैं, संसार से भयभीत हैं, सुवर्ण एवं तृण दोनों से भेद रहित हैं, अनेक गुणों से विभूषित हैं, समस्त दोषों से रहित हैं-ऐसे मुनिराजों को ही उत्तम सत्पात्र समझना चाहिए ॥१००॥ जो मुनि अत्यन्त दुष्कर संसार रूपी महासागर से स्वयं उत्तीर्ण (पार) होने में स्वयं समर्थ हों एवं दाताओं को भी उत्तीर्ण कराने में समर्थ हों, उन्हीं को उत्तम पात्र समझना चाहिए । पात्र दान का फल भोगभूमि में प्राप्त होता है, जहाँ कि मिथ्यादृष्टि भी अनेक प्रकार के सुख प्राप्त करते हैं । वहाँ पर उन्हें दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न कामनानुसार सुख प्राप्त होते हैं, फिर उन्हें देवियों के समूह से उत्पन्न होनेवाले देवगति के सुख प्राप्त होते हैं । सम्यदृष्टि जीव सुपात्रों को दान देने से अनेक प्रकार की ऋद्धियों से सुशोभित सुख के सागर सोलहवें स्वर्ग में जा कर उत्पन्न होते हैं । पात्र दान की अनुमोदना करने से मनुष्य तथा पशु भी अनेक सुखों से परिपूर्ण भोगभूमि में जा कर उत्पन्न होते हैं ॥११०॥ हे भद्र ! पात्रों को दान देना गृहस्थों के लिए महापुण्य का कारण है, इस लोक-परलोक दोनों स्थानों में अनेक प्रकार की विभूति प्रदायक है एवं यश का हेतु है । इसलिए गृहस्थों को स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्राप्त करने के लिए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सुपात्रों को चारों प्रकार का दान देते रहना चाहिए । माँस या सुवर्ण आदि का दान कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह दान कु-दान है, पापों का सागर है, वह दाता एवं याचक दोनों के लिए नरक का कारण है। लोभ के कारण जो दुष्ट विषयी माँस आदि कु-दान लेने की कामना करता है, वह कभी उत्तम पात्र नहीं हो सकता । जो मूढ़ माँस आदि कु-दानों को देता है, वह कभी दाता नहीं कहा जा सकता; क्योंकि | १५३ वह उस पाप से अपने को एवं अन्य को भी नरकायु का बंध कराता है । जो मूढ़ कु-दान देते हैं अथवा लेते हैं । पाप कर्म के उदय से वे दोनों ही नरक के वासी बनते हैं । इसलिए बुद्धिमानों को प्राणनाश की आशंका होने पर भी नरक का मार्ग एवं पापों का कारण कु-दान कभी नहीं देना चाहिए। यह गीध सत्पात्र नहीं है, क्योंकि यह दूसरे के माँस का लोलुप है, दुष्ट है, विषयांध है एवं अनेक जीवों की हिंसा 4 Fb 4 Fb PFF F 5
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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