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दूसरे को देना दान है । उपकार भी अपना उपकार एवं दूसरे का उपकार है-दो प्रकार का होता है । दान देने से विशेष पुण्य बंध होता है ( जो कि भोगभूमि एवं स्वर्ग का कारण है) तथा इससे जो यश फैलता है, वह अपना उपकार कहलाता है । जिस दान से याचक पात्र के प्राणों की रक्षा होती है । फलस्वरूप वह पात्र धर्मध्यान, व्युत्सर्ग, षट् आवश्यक, तप एवं व्रत का पालन करता है, जिससे उसका चित्त स्थिर रहता है, उसकी क्षुधा का नाश होता है, उसे आरोग्य सुख पहुँचता है एवं वह शास्त्रों का पठन-पाठन करने में समर्थ होता है - यह सब परोपकार कहलाता ॥९०॥ श्री जिनेन्द्रदेव ने श्रद्धा, भक्ति, निर्लोभ, शक्ति, ज्ञान, दया, क्षमा-ये सप्त गुण दाता के लिए वर्णित किए हैं । इन गुणों से सुशोभित सम्यग्दृष्टि, व्रती, जिनभक्त एवं सदाचारी दाता संसार में उत्तम गिना जाता है । अब दान में देने योग्य पदार्थ की व्याख्या करते हैं -सद्गृहस्थों को उत्तम पात्रों को आहार- दान देना चाहिये । वह आहार कृतकारित आदि दोषों से रहित होना चाहिये । मनोहर, निर्दोष, प्रासुक, शुभ, पीड़ा न उत्पन्न करनेवाला होना चाहिये । दाता एवं पात्र दोनों के गुणों को बढ़ानेवाला, अनुक्रम से मोक्ष का साधन, पात्र के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि को समुन्नत करने, उद्गमादि दोषों से रहित, प्रासुक, मधुर, तृप्तिदायक तथा अत्यन्त निर्दोष होना चाहिये एवं यह आहार दान विधिपूर्वक दिया जाना चाहिए । इसी प्रकार पात्रों के देह (शरीर ) में कोई व्याधि हो, तो पु उसे ज्ञात कर बुद्धिमानों को हिंसा आदि पाप-कर्मों से रहितप्रस्तुत की गई रोग-क्लेश आदि का उपशम
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करनेवाली औषधि उन पात्रों को दान में देनी चाहिए । इसी प्रकार ज्ञानी मुनियों के लिए बुद्धिमानों को ज्ञान दान व शास्त्र दान देना चाहिए । वे शास्त्र सर्वज्ञ प्रणीत, पदार्थों के सत्यार्थ स्वरूप का वर्णन करनेवाले, दीपक के सदृश समस्त तत्वों को प्रकाशित करनेवाले, अज्ञान का निवारण करनेवाले, ज्ञान के कारण, धर्म का उपदेश देनेवाले, पूर्वापर विरुद्धता आदि दोषों से रहित एवं गुणों को प्रकट करने के साधन के समान होने चाहिए। चतुर पुरुषों के समस्त जीवों में दया दान करना चाहिए, क्योंकि यह दया दान ही धर्म की जड़ है, गुणों का स्थान है एवं समग्र जीवों का हित करनेवाला है। हे अनुज ! इस संसार में निर्ग्रथ मुनिराज ही सर्व प्रकारेण परिग्रहों से रहित हैं, रत्नत्रय से विभूषित हैं, समग्र जीवों का हित करनेवाले हैं धीर-वीर हैं लोभ आदि सर्व विकारों से रहित हैं, ज्ञानध्यान में लीन हैं, चतुर हैं, संसार रूपी समुद्र के पारगामी हैं, भव्य दाताओं को संसार के उत्तीर्ण (पार) करानेवाले हैं, समस्त परीषहों पर विजय
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