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कर अनेक प्रकार से धर्म का उपार्जन करते थे ॥१५०॥ किसी दिन नन्दीश्वर पर्वत पर उन्होंने प्रोषधोपवास किया एवं विपुल विभूति से श्री जिन-बिम्बों की महापूजा की । अनन्तर रात्रि में वे धीर-वीर स्वयं मोक्ष प्राप्त करने के लिए वन में एकाग्रचित्त से श्री जिनेन्द्रदेव के गुणों का स्मरण करते हुए प्रतिमायोग धारण कर मेरु पर्वत के समान स्थिर विराजमान हुए । ठीक इसी समय देवों के द्वारा पूज्य ऐशान स्वर्ग का इन्द्र देवों की सभा में विराजमान था । उसने अपने ज्ञान से धीर-वीर महाराज मेघरथ को इस प्रकार ध्यानमग्न विराजमान जानकर आश्चर्य के संग कहा-'आप धन्य हैं, आप ही गुणों के सागर हैं, ज्ञानी हैं, पुण्यवान हैं, विद्वान हैं एवं धैर्यशाली हैं। आज आप को इस स्थिति में देखकर आश्चर्य होता है।' इस प्रकार प्रसन्न होकर मन ही मन इन्द्र मेघरथ की स्तुति करने लगे । अपने मन में आश्चर्य चकित देवों ने इन्द्र को इस प्रकार की स्तुति करते देख जिज्ञासा की-'हे नाथ ! आप ने इस समय किन सज्जन की यह दिव्य स्तुति की है ?' तब इन्द्र ने कहा-'हे देवों ! सुनो, जो स्तुति करने योग्य हैं एवं जिनकी सार्थक स्तुति मैंने की है, उनकी उत्तम कथा सुनाता हूँ । राजा मेघरथ महान् धीर-वीर हैं, शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं, नृपतियों के शिरोमणि हैं, तीनों ज्ञानों को धारण करनेवाले हैं, उनका आसन भव्य है एवं वे अनेक गुणों की खान हैं । आज उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया है, इसलिए उन्होंने काया से ममत्व त्याग दिया है । वे महात्यागी हो गए हैं एवं शील रूपी आभरण से सुशोभित हो रहे हैं, इस समय मैंने उन्हीं की स्तुति की है।' इन्द्र की इस व्याख्या को सुन कर अतिरूपा एवं सुरूपा नाम की दो देवियाँ मेघरथ की परीक्षा करने के लिए पृथ्वी पर आईं । उस समय महाराज मेघरथ शरीर से ममत्व त्यागे हुए, क्रोधादि कषाय-रहित, समता व्रत को धारण किए हुए क्षमावान, महा धीर-वीर एवं समस्त विकारों से रहित होकर विराजमान थे । उस समय वे समुद्र के समान गम्भीर थे, पर्वत के समान निश्चल थे, एकान्त में विराजमान थे, शान्त परिणामों को धारण किए हुए थे, ध्यान में तल्लीन थे, अत्यन्त निस्पृह थे, सब चिन्ताओं से रहित थे, निर्भय थे, ज्ञानी थे, बुद्धिमान थे, कायोत्सर्ग धारण किए हुए थे एवं व्रत-शील. आदि से सुशोभित थे ॥१६०॥ इस प्रकार गुणों के आकार (कोष), उपसर्ग के कारण वस्त्रों से आच्छादित, मुनिराज के समान महाराज मेघरथ को उन देवियों ने देखा । उन देवियों ने अति धीरता-वीरता धारण करनेवाले महाराज मेघरथ पर असह्य तथा भीषण उपसर्ग करना प्रारम्भ किया । जिससे उनके ध्यान में विघ्न उत्पन्न हो, ऐसे मनोहर भाव, विलास, विभ्रम,
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