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________________ FFER विद्याधर ने मस्तक नवाकर उन तीर्थंकर की वन्दना की एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए अनेक राजाओं के संग प्रसन्नतापूर्वक जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । विद्याधरी मदनवेगा ने भी गुणों की स्थानभूत प्रियमित्रा नाम की अर्जिका के समीप जाकर दीक्षा धारण की तथा समस्त प्रकार का तपश्चरण करने लगी । देखो, काल-लब्धि प्राप्त कर कभी-कभी चारित्र आदि को धारण करने में भव्य जीवों का क्रोध भी पाप कर्मों के निवारण का कारण माना जाता है । तदनन्तर अखण्ड महिमा को धारण करनेवाले बुद्धिमान राजा मेघरथ भी अपनी रानियों के साथ निर्विघ्न रीति से अपने राजमहल में पहुँचे । अथानन्तर-एक दिन राजा मेघरथ उत्तम प्रासुक द्रव्य से पाप का विनाश करनेवाली नन्दीश्वर द्वीप पूजा कर उपवास किए हुए विराजमान थे । उस दिन उन्होंने गृहस्थी संबंधी समस्त आरम्भ आदि त्याग दिया था । अपने पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त राज्य के महाप्रताप से धर्म, अर्थ, काम-तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि होने से उनके सम्पूर्ण || मनोरथ पूर्ण हो गए थे। तत्वों की यथार्थ श्रद्धा से वे सुशोभित थे, शास्त्रों के परगामी थे । व्रत-शील आदि गुणों से वे विभूषित थे, श्रेष्ठ धर्म का पालन करते थे । करुणादान आदि करने में वे तत्पर थे । वे भव्यों के लिए सूर्य के समान थे । उनके ज्ञान रूपी नेत्र सदैव उन्मुक्त रहते थे । पुत्र, भ्राता, पत्नी आदि परिवार के समस्त सदस्य उनकी सेवा करते थे तथा वे सदैव जैन धर्म का उपदेश दिया करते थे। जिस समय वे उपवास धारण कर विराजमान थे तथा परिवार के समस्त सदस्य उनके समीप बैठे हुए थे, उसी समय भय से घबराया तथा थर-थर काँपता हुआ एक कबूतर प्राणरक्षा की आशा से उनके निकट आया ॥६०॥ उसके पीछे ही उसके माँस का लोलुपी, महाक्रूर एवं दुष्ट एक वृद्ध गीध पक्षी आया । वह गीध महाराज मेघरथ के सामने खड़ा होकर दीन स्वर में याचना करने लगा-'हे देव ! मैं अत्यन्त दुर्बल हूँ तथा क्षुधा की तीव्र ज्वाला से मेरी काया विदग्ध हो रही है । यह कबूतर जो आप की शरण आया है, मेरा भक्ष्य है । आप इसे मुझे दे दीजिए, क्योंकि आप दानवीर हैं। यदि आप इसे मुझे न देंगे तो बस मुझे यहीं पर मृत समझिए।' इस प्रकार दीन वचन कह कर वह क्षुधित गीध उत्तर की प्रत्याशा में खड़ा हो गया । गीध पक्षी की याचना सुनकर राजा मेंघरथ का अनुज दृढ़रथ कहने लंगा-'हे पूज्य ! इस गीध की उक्ति सुन कर मुझे घोर आश्चर्य हुआ है । यह इस प्रकार किस कारण से कहता है ? पूर्व भव की किसी शत्रुता के कारण या केवल जन्मजात जाति-शत्रुता के कारण ? कृपया आप यह भेद समझाइए ।' राजा मेघरथ कहने 4 Fb EF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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