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नमस्कार किया, श्रावक के व्रत स्वीकार किए एवं भक्तिपूर्वक व्रतों को धारण कर प्रसन्न वदन अपने राजमहल लौट गया । किसी दिन द्वारापेक्षण करते समय राजा राजगुप्त ने स्वयं आगत गुणों के आकर (संग्रह) धृतिषेण मुनि के दर्शन किए, भक्तिपूर्वक उनकी पड़गाहना की तथा विधिपूर्वक सुख का सागर, तृप्तिदायक मिष्ट, रसीला तथा सारभूत शुद्ध आहार उन्हें प्रदान किया ॥ ४० ॥ तदुपलक्ष में अर्जित पुण्य कर्म के उदय से उसी समय उसके प्रांगण में रत्नवृष्टि आदि पन्चाश्चर्य प्रकट हुए। ठीक ही है । उत्तम दान से भला क्या प्राप्त नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ प्राप्त होता है । किसी दिन राजा राजगुप्त को ज्ञात हुआ कि उसकी दुर्लभ आयु अब स्वल्प ( थोड़ी) ही शेष रह गई है, तब वह प्रसन्न हो समाधिगुप्त मुनिराज के निकट पहुँचा । मन में वैराग्य धारण करते हुए राजा राजगुप्त ने शीश नवा कर मुनिराज को नमस्कार किया ति तथा पाप शान्ति हेतु व्रतपूर्वक संन्यास धारण किया । उसने क्षुधा -पिपासा आदि घोर परीषों को भी ह ना किया तथा समाधिपूर्वक धर्मध्यान से प्राणों का परित्याग किया । वह राजा राजगुप्त व्रत-दान तथा संन्यास आदि से अर्जित हुए पुण्य कर्म के उदय से ब्रह्मस्वर्ग में ब्रह्म नाम का इन्द्र हुआ । वहाँ पर वह पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से अपनी इन्द्राणी के संग देवलोक की अतुल वैभव लक्ष्मी का उपभोग करने लगा तथा इस प्रकार उसने दश सागर की पूर्ण आयु व्यतीत की । आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत हुआ तथा शेष पुण्य कर्म के उदय से विद्याधर कुल में यह सिंहरथ विद्याधर हुआ है । शंखिका का जीव भी संसार में परिभ्रमण कर तपश्चरण के प्रभाव से विमानादिकों से सुशोभित तथा सुख के स्थान देवलोक में जाकर उत्पन्न हुआ । वहाँ से चय कर पुण्य कर्म के उदय से विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के अवस्वालपुर नगर के राजा इन्द्रकेतु की रानी सुप्रभावती के गर्भ से मदनवेगा नाम की सती तथा सुलक्षणोंवाली पुत्री हुई है" ॥५०॥ इस प्रकार अपने पूर्व भव का वृत्तान्त सुन कर वह विद्याधर परम सन्तुष्ट हुआ । राजा मेघरथ को उसने नमस्कार किया, उत्तम द्रव्यों से उनकी पूजा की तथा गृह - भोग- देह आदि से विरक्त होकर दीक्षा लेने की अभिलाषा से अपनी विद्याधरी ( मदनवेगा) के संग अपने नगर को लौट गया । उसने वहाँ पहुँचकर मोक्षाभिलाषी भव्य प्राणियों के लिए त्याग करने योग्य राज्य का कठिन भार अपने सुवर्णतिलक नामक पुत्र को सौंप दिया तथा चारित्र से उत्पन्न हुआ उत्तम सहज भार ग्रहण करने के लिए मुक्ति-रूपी - रमणी के पति एवं जगत् के स्वामी घनरथ तीर्थंकर के समीप पहुँचा । वहाँ पर जाकर सिंहरथ
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