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राजा राजगुप्त राज्य करता था । उसकी सदाचारिणी रानी का नाम शंखिका था । किसी दिन वे दोनों मुनिराज की वन्दना करने के लिए शंख नामक पर्वत पर गए थे। वहाँ पर सर्वगुप्तनाम के मुनि विराजमान थे। उन्होंने उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, नमस्कार किया एवं धर्म श्रवण करने की अभिलाषा से भक्तिपूर्वक उनके चरणों के समीप बैठ गए। मुनिराज ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए अनेक सुखों का सागर मुनि श्रावक का अहिंसा लक्षण रूपी धर्म का निरूपण किया। उन्होंने उन दोनों के हितार्थ अक्षय सुख देनेवाली एवं श्री जिनेन्द्र पद को प्रदान करनेवाली जिन गुण सम्पति नामक उपवास की कथा कही । उस व्रत का नाम सुनकर राजा राजगुप्त ने मुनिराज से पूछा- 'हे प्रभो ! यह व्रत किस प्रकार से किया जाता है, आप कृपा कर विधि भी कहिये ।' मुनिराज ने कहा- 'हे राजन् ! सुनो, मैं जिनगुण सम्पत्ति नामक इस शुभ व्रत की ति सविस्तार व्याख्या कहता हूँ । जो श्री जिनेन्द्रदेव की विभूति प्रदायक इस व्रत का मन-वचन-काय की
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शुद्धता से पालन करता है, वह मनुष्यों एवं देवों के सुख भोग कर अनुक्रम से मोक्ष पद प्राप्त करता है । सर्वप्रथम जिनालय में विराट उत्सव पूर्वक भगवान का अभिषेक करना चाहिये एवं तदुपरान्त भव्य जीवों को विधिपूर्वक उसका विधान सम्पन्न करना चाहिये ॥३०॥ तीर्थंकर पद प्रदायक षोडश ( सोलह ) कारण भावनाओं को उद्देश्य कर बुद्धिमानों को षोडश ( सोलह ) उपवास करना चाहिये, तदुपरान्त पंच महाकल्याणकों को उद्देश्य कर भक्तिपूर्वक सब कल्याणों को करनेवाले पाँच प्रोषधोपवास करना चाहिये, फिर अष्ट प्रातिहार्यों का निमित्त लेकर भक्तिपूर्वक प्रातिहार्यादिक की विभूति प्रदायक आठ उपवास करना चाहिये । फिर श्री जिनेन्द्रदेव की विभूति प्रदायक चौंतीस अतिशयों से उद्देश्य कर भावपूर्वक चौंतीस उपवास करना चाहिये । इस प्रकार भव्य जीवों को सुख प्रदाता एवं कर्मों का विनाश करनेवाले सब प्रोषधोपवासों की संख्या त्रेसठ होती है। इस प्रकार व्रतों के पूर्ण होने पर बुद्धिमानों को अपनी शक्ति के अनुसार भगवान का महाअभिषेक कर एवं धर्मोपकरण चढ़ा कर व्रत का उद्यापन करना चाहिये । जिनके पास पर्याप्त धन नहीं है, अथवा किसी अन्य कारण से जिनमें उद्यापन करने की शक्ति नहीं उनको भक्तिपूर्वक इस उत्तम व्रत का विधान दूना करना चाहिए एवं दूने प्रोषधोपवास करने चाहिये ।' राजा राजगुप्त ने अपनी रानी के संग एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक उस व्रत का पालन किया एवं अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुसार उसका उद्यापन किया । मुनिराज की वन्दना करने के उपरान्त राजा ने उन्हें
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