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देख कर राजा मेघरथ ने उस शिला को अपने पैर के अंगूठे से दबा कर उस विद्याधर को इतना त्रस्त किया कि वह अत्यन्त पीड़ित हुआ । उनके पैर के दबाब से उस शिला का बोझ विद्याधर पर इतना अधिक पड़ा कि वह उसे सह नहीं सका, इसलिए कातर होकर दीन मनुष्य के समान करुणा भरे शब्दों में विलाप करने लगा । उसके क्रंदन की करुण ध्वनि सुनकर उसकी विद्याधरी विमान से भूमि पर उतरी, शोक से उसका मुख शुष्क हो गया था तथा वह महाराज मेघरथ से कहने लगी-'हे नाथ ! मुझ पर दया कीजिए । हे प्रभो ! मेरे पति को मुक्त कर दीजिए, मुझे पति के जीवन की प्राणभिक्षा दीजिए, अन्यथा मैं तो अनाथ हो जाऊँगी' ॥१०॥ विद्याधरी की यह प्रार्थना सुनकर धर्मात्मा राजा मेघरथ ने कृपापूर्वक उसी समय शिला से अपना पैर उठा लिया । यह देख कर उनकी रानी प्रियमित्रा जिज्ञासा प्रकट करने लगी-'हे नाथ ! यह विद्याधर कौन है एवं इसने ऐसा क्यों किया ?' तब राजा मेघरथ कहने लगे-'हे आर्ये ! तू अपना चित्त एकाग्रकर सुन । क्रोध एवं अहंकार से उत्पन्न होनेवाली इस विद्याधर की कथा मैं कहता हूँ । इसी मनोहर विजया पर्वत पर अलकापुरी नगरी में राजा विद्युदंष्ट्र राज्य करता था, उसकी सुन्दरी रानी का नाम अनिलवेगा था । यह उन दोनों का सिंहरथ नाम का पुत्र है । आज यह केवलज्ञान से विभूषित होनेवाले श्री मतिवाहन तीर्थंकर की वन्दना करके लौटा है । आकाश-मार्ग से मेरे ऊपर से होकर जा रहा था, परन्तु किसी कारण से आकाश में ही इसका विमान स्तम्भित हो (रुक) गया ।
विमान को स्तम्भित हआ पाकर वह सब ओर निरीक्षण करने लगा । मुझे देखकर एवं इसका कारण मान कर यह अभिमान एवं क्रोध से इस शिला के नीचे घुस गया एवं इस शिला-सहित मुझे उठाने का प्रयत्न करने लगा । तब मैंने इस दर्पोन्मत्त को अपने अंगुष्ठ से नीचे दबाया, जिससे अब यह त्राहि-त्राहि कर रहा है । इसे मुक्त कराने के लिए इसकी विद्याधरी यहाँ आई है।' इस प्रकार राजा मेघरथ ने उस विद्याधर की कथा सुनायी । यह सुनकर प्रियमित्रा ने पुनः पूछा-'इसके क्रोध का कारण यही है या कुछ अन्य ? कृपया यह भी स्पष्ट करें ।' इसके उत्तर में राजा मेघरथ कहने लगे-'इसके तात्कालिक क्रोध का कारण केवल यही है. अन्य कछ नहीं । मैं इस विद्याधर के पूर्व भव की कथा कहता हूँ.सो ध्यान लग कर सुनो ॥२०॥ धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व मेरु की उत्तर दिशा की ओर मनोज्ञ ऐरावत क्षेत्र है। उसमें एक शंखपुर नगर है, जो जैन धर्म के उत्सवों से शोभायमान है । उसमें पुण्य कर्म के उदय से शुद्ध हृदयवाला
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