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निवारण करनेवाले श्री जिनेन्द्र देव द्वारा उपदेशित जैन धर्म का सर्वदा पालन करते थे। बहुत अधिक कहने से क्या लाभ है ? भव्य जीवों को इतने में ही समझ लेना चाहिये कि धर्म उपार्जन करने से राजा मेघरथ को धर्म-अर्थ-काम अर्थात् तीनों पुरुषार्थों की प्रदाता तथा पुण्य उपार्जन करनेवाली तीनों लोक सम्बन्धी देवों एवं मनुष्यों की विभूतियाँ प्राप्त हुई थीं । यह सब समझ कर बुद्धिमानों को स्वर्ग-मोक्ष को वश में करने वाले तथा सर्वप्रकारेण सुख प्रदायक जैन धर्म का पालन सदैव प्रयत्नपूर्वक करते रहना चाहिये ॥३००॥ जो श्री शान्तिनाथ पंचम चक्रवर्ती थे, अत्यन्त मनोज्ञ थे, जिन्हें इन्द्र-नरेन्द्र तक नमस्कार करते थे, जो कामदेव थे एवं रूप के भण्डार थे, लावण्य के समुद्र थे, तीर्थंकर थे, समस्त गुणों से युक्त थे, तीनों लोकों में पूज्य थे, ऐसे तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ भगवान समस्त धर्मसंघ को तथा मुझे भी शान्ति प्रदान करें। इस प्रकार श्री शान्तिनाथ पुराण में राजा मेघरथ के भव का वर्णन करनेवाला यह दशवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥१०॥
ग्यारहवाँ अधिकार मैं शान्तिनाथ भगवान के उत्तम गुणों को प्राप्त करने के लिए संसार की समस्त अशान्ति का निवारण करने वाले तथा शान्तिरूपी गुण के समुद्र उन्हीं श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर को मस्तक नवा नमस्कार करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर-किसी दिन राजा मेघरथ अपनी रानियों के संग क्रीड़ा करने के लिए वृक्षों से परिपूर्ण देवरमण नामक उद्यान में गए । वहाँ उन्होंने उस. वन का अवलोकन किया, विविध प्रकार की आमोद क्रीड़ाएँ की तथा अपनी रानियों के साथ चन्द्रकान्त शिला पर विराजमान हो गए । उसी समय विमान में अपनी विद्याधरी के संग बैठा हुआ एक विद्याधर उनके ऊपर से जा रहा था, परन्तु उनके ऊपर से जाने के कारण वह विमान वहीं पर रुक गया तथा किसी विशाल शिला के समान भारी हो गया । विमान को रुका हुआ देख कर वह विद्याधर समस्त दिशाओं में अन्वेषण करने लगा, तो नीचे की ओर राजा मेघरथ से शोभायमान किरणों से व्याप्त एक शिला देखी । यह देखते ही वह उस शिला के नीचे घुस गया तथा क्रोधपूर्वक अपनी विद्या के प्रभाव से अपने हाथों से ही बलपूर्वक उसे उठाने का प्रयत्न करने लगा। यह
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