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सीमन्धर देव को मैं नमस्कार करता हूँ। ढाई द्वीप में जो देवों के द्वारा पूज्य अन्य ऐसे अनेक तीर्थंकर हैं, उन सबको भी नमस्कार करता है। जो श्रेष्ठ धर्म के प्रगट करनेवाले हैं, जिनेन्द्र हैं, गुणों के स्वामी हैं, तीनों लोकों के जीव जिनकी सेवा करते हैं, जो केवलज्ञान-रूपी दीपक से प्रकाशित हैं, अनेक सुख से विराजमान तथा श्रेष्ठ मुक्ति को देनेवाले ऐसे तीनों काल में उत्पन्न होनेवाले अतिशय शूर-वीर तीर्थंकरों को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२०॥ जो कर्म-रूपी शत्रुओं से रहित, आठ गुणों से सुशोभित, लोक के शिखर पर विराजमान हैं एवं जिननाथ तीर्थंकर भी जिन्हें नमस्कार करते हैं तथा सब तरह के क्लेशों से रहित हैं, ऐसे श्री सिद्ध परमेष्ठी को मैं उनके गुण-समुद्र प्राप्त करने की अभिलाषा के लिए अपने मन में सदा स्मरण करता हूँ।
जो इस संसार में दर्शन.ज्ञान, चारित्र, वीर्य एवं तप-इन पन्चाचार गुणों को स्वयं पालन करते हैं तथा मोक्ष प्राप्त कराने के लिए अपने शिष्य मुनियों से पालन कराते हैं, ऐसे देवों के द्वारा पूज्य आचार्य के चरण कमलों को मैं, पन्चाचारों को विशुद्ध करने के लिए, अपना मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ। जो ग्यारह अंग चौदह पूर्व एवं प्रकीर्ण शास्त्रों को उनकी सिद्धि के लिए स्वयं पढ़ते हैं तथा मोक्ष प्राप्त कराने के लिए अपने शिष्य मुनियों को पढ़ाते हैं, जो द्वादशांग-रूपी महासागर के पारंगत एवं समस्त प्राणियों के हित कराने के लिए तत्पर हैं; ऐसे उपाध्याय मुनियों को मैं ग्यारह अंग, चौदह पूर्व की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ। जो रत्नत्रय सहित घोर एवं दुष्कर तपश्चरण से अत्यन्त निर्मल मोक्षमार्ग की इस संसार में सिद्धि करते हैं; जो सन्ध्या, प्रातः, मध्याह्न-तीनों समय योग धारण करते हैं, जो गुणों की खानि तथा तपश्चरण के साथ-साथ बड़े ही धीर-वीर हैं, ऐसे महायति साधुओं को मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में जो पन्च-परमेष्ठी को अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक नमस्कार किए गए तथा जिनकी वन्दना एवं प्रार्थना की गई हैं, वे पन्च-परमेष्ठी इस प्रारम्भ किए गए शास्त्र के पूर्ण होने के लिए मेरी बुद्धि को तीक्ष्ण एवं अर्थ के पारगामी बनावें तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय प्रदान करें ।३०। जो भव्य जीवों का हित करने के लिए परम पवित्र एवं मोक्ष देनेवाले द्वादशांग श्रुतज्ञान को स्वयं गूंथते अर्थात् उसकी रचना करते हैं, ऐसे श्री ऋषभसेन से प्रारंभ कर श्री गौतम पर्यंत समस्त गणधरों को में कवित्व आदि गुण प्राप्त होने के लिए मन-वचन-काय को शुद्धिपूर्वक
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