SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . : हैं । मैं उन श्री ऋषभदेव को भी धर्म प्राप्ति करने के लिए नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने इस संसार में धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति की है-वे धर्म के स्वामी हैं, धर्म के दाता हैं तथा मुनिराजों के स्वामी हैं। जिन्होंने युग के प्रारम्भ में मोक्षमार्ग को प्रगट करने के लिए अपनी वचनरूपी किरणों से संसार के अज्ञानान्धकार को दूर कर धर्म को प्रकाशित किया है, जो अत्यन्त निर्मल हैं, जिनकी आत्मा सुख स्वरूप है, जो धर्म की ही प्रवृत्ति करने वाले हैं तथा इस युग के प्रारम्भ में तीर्थंकरों में सबसे पहिले सिद्ध होने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र-रूपी सूर्य भगवान श्री ऋषभदेव को मैं नमस्कार करता हूँ । जो भव्य लोगों की हृदय-रूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करने वाले हैं अज्ञान-रूपी अन्धकार को दूर करने वाले हैं, चन्द्रमा के समान कान्ति को धारण करने वाले हैं तथा चन्द्रमा का ही जिनके चिह्न है, ऐसे श्री चन्द्रप्रभ स्वामी को भी मैं नमस्कार करता हूँ। जो अन्तरंग-बहिरंग लक्ष्मी से विभूषित हैं, इच्छानुसार पदार्थों को देनेवाले हैं, कर्मों का नाश करनेवाले हैं, मुक्ति-रूपी स्त्री में आसक्त हैं तथा स्त्री के कर-स्पर्श का (पाणिग्रहण या विवाह का) परित्याग करनेवाले हैं, ऐसे सर्वोत्कृष्ट श्रीनेमिनाथ को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१०॥ तीनों लोक जिनकी सेवा करते हैं एवं जिनमें अनंत महिमा विराजमान है, ऐसे पार्श्वनाथ जिनेन्द्रदेव को मैं उनके निकटवर्ती होने के लिए नमस्कार करता हूँ। जिनका निरूपण किया हुआ धर्म आज पाँचवें दुःखमा काल में भी वर्तमान है तथा जिस धर्म को अनेक श्रेष्ठ मुनिराज तथा श्रावक सदा धारण करते हैं, ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी को मैं तीनों लोकों का हित करने के लिए प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ क्योंकि वे वर्द्धमान स्वामी ही कर्मरूप शत्रुओं को शान्त करनेवाले हैं। समस्त देव एवं मनुष्य जिनकी स्तुति करते हैं, जो तीनों लोकों का हित करनेवाले हैं तथा जो धर्म-साम्राज्य के स्वामी हैं, ऐसे शेष समस्त तीर्थंकरों को भी मैं नमस्कार करता हूँ। जो श्रेष्ठ गुणों के द्वारा सम्पन्न हैं, इस संसार में महान अतिशयों से सुशोभित हैं, अष्ट प्रातिहार्यों से विभूषित हैं, अनन्त गुणों से सुशोभित हैं, भव्य जीवों को आत्मज्ञान करानेवाले हैं तथा मुक्तिरमा के स्वामी हैं, ऐसे चौबीस तीर्थंकरों को मैं, प्रारम्भ किए हुए कार्य को पूर्ण करने के लिए नमस्कार करता हूँ। जो पूर्व विदेहक्षेत्र में अब भी धर्म की प्रवृत्ति कर रहे हैं एवं चारों प्रकार के संघ के मध्य में विराजमान हैं; समस्त देव, मनुष्य जिनकी पूजा करते हैं, जो भव्य जीवों के लिए अद्वितीय या. सर्वश्रेष्ठ बन्धु हैं, धर्म की खान हैं, समस्त संसार को आनन्द देनेवाले हैं, तथा जिनाधीश हैं, ऐसे श्री 449 4 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy