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को समझाते हैं, गुण-दोषों को पहचानते हैं एवं धर्म-मोक्ष तथा संसार को जानते हैं । आप अन्तरंग - बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं, अनन्त गुणों के स्वामी हैं, मुक्तिरूपी रमणी के पति हैं, जगत् के बांधव हैं एवं चराचर के स्वामी हैं; इसलिये मन-वचन-काय से आप को नमस्कार ।' तदुपरान्त भक्तिपूर्वक उन्होंने उन तीर्थंकर का स्तवन किया, कल्पवृक्ष के पुष्पों से तथा दिव्य गन्धादि से उनकी पूजा की, मस्तक नवा कर उनको नमस्कार किया, अपने नियोग (कर्तव्य) का पालन किया एवं इस प्रकार अपार पुण्य उपार्जन कर वे व्योम मार्ग से अपने स्थान को लौट गये । इन्द्रों के संग-संग चतुर्निकाय के देव भी तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक को ज्ञातकर अपने-अपने चिह्नों से युक्त होकर भक्तिभाव से आये । दीक्षा धारण करने के पूर्व देवों ने विपुल विभूति से घनरथ तीर्थंकर का अभिषेक किया तथा दिव्य आभरणादिकों से उनकी पूजा ति की । तदनन्तर तीर्थंकर की मेघरथ का राज्याभिषेक किया एवं अपनी विभूति के संग-संग बुद्धिमानों के ना लिए त्याग करने योग्य राज्य भी पुत्र को सौंप दिया । तदुपरान्त वे तीर्थंकर भगवान अनेक प्रकार की शोभा से अलंकृत दिव्य पालकी में विराजमान होकर समवेत समस्त देवों के संग वन में गए। वहाँ जाकर उन्हें मन-वचन-काय की शुद्धि एवं सिद्ध भगवान की साक्षीपूर्वक वस्त्रादिक बाह्य परिग्रहों का त्याग किया एवं मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रहों का भी त्याग किया ॥ २८० ॥ उन्होंने केशों का लोंच पन्चमुष्टियों में किया एवं इन्द्रों के द्वारा की गई अर्चना से पूज्य होकर उत्तम संयम धारण किया । वे जितेन्द्रिय बुद्धिमान भगवान मन-वचन-काय की शुद्धि धारण करने लगे एवं क्षमा द्वारा कषाय रूपी विष का नाश करने लगे । शुद्ध हृदय को धारण करनेवाले धीर-वीर तीर्थंकर भगवान ने शुक्ललेश्या, महाध्यान एवं मौनव्रत धारण किया तथा चारों ज्ञानों से युक्त होकर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया । उन्होंने कभी तो आत्मा से प्रकट हुआ ध्यान धारण किया, कभी तत्वों का चिन्तवन किया, कभी व्युत्सर्ग धारण किया एवं कभी दृढ़ वज्रासन धारण किया । उन्होंने क्षपकश्रेणी का आश्रय लेकर दूसरे शुक्लध्यान रूपी वज्र से अशुभ घातिया कर्म रूपी पर्वतों को विध्वस्त कर डाला एवं शीघ्र उसी समय समस्त तत्वों को प्रकाशित करनेवाला, तीनों कालों की पर्यायों को जाननेवाला, शाश्वत रहनेवाला एवं मुक्ति-रूपी नारी को वश में करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त किया । तदनन्तर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने के प्रभाव से इन्द्रादिक समस्त देवों के आसन कम्पायमान हुए । अवधिज्ञान से इस घटना को ज्ञात कर के समवेत वहाँ आए। उन्होंने आते ही तीर्थंकर
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