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कौन है, जो दीक्षा धारण करने में आत्मा का हित करने में तथा धर्मपालन करने में विलम्ब करे-क्योंकि मृत्यु कब आयेगी, यह तो किसी को भी ज्ञात नहीं है । ये भ्राता-बान्धव सब बन्धन के समान हैं, चन्चल सम्पदा विपत्ति के समान है, राज्यसत्ता पाप की खानि है तथा विषय जाल में फंसानेवाली नारियाँ पाप उत्पन्न करनेवाली हैं । ये विषय भोग विष के समान हैं, भोग रोग के समान हैं तथा मनुष्यों का जीवन प्रातःकाल की दूब पर लगी हुई ओस की बून्द के समान शीघ्र ही विनष्ट होनेवाला है । यदि ऐसा नहीं होता, तो तीर्थंकर आदि श्रेष्ठ व्यक्ति गृहत्याग कर तपश्चरण करने के लिए वनगमन क्यों करते ?' ॥२६०॥ घनरथ तीर्थंकर अपने हृदय में इस प्रकार चिन्तवन कर गृह-निवास आदि समस्त सांसारिक पदार्थों से विरक्त हुए एवं जब वह दीक्षा लेने के लिए प्रस्तुत हुए, तब उसी समय लौकान्तिक देव अपने अवधि ज्ञान से तीर्थंकर की दीक्षा का समय आसन्न ज्ञात कर अपनी अभिलषित प्रार्थना करने के लिए यथाशीघ्र स्वर्ग से आए । उन्होंने सर्वप्रथम मस्तक नवा कर तीर्थंकर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं तत्पश्चात् अपनी बुद्धि के अनुसार अत्यन्त भक्तिभाव से सार्थक स्तुति करने लगे-'हे देव ! आप जगत् के स्वामी हैं। हे नाथ ! आप तीनों लोकों का हित करनेवाले हैं । आप समस्त गुणों के स्थान हैं । जिनका कोई आश्रय नहीं है, आप उनके भ्राता-बन्धु हैं । आप पूज्यों के लिए भी महापूज्य हैं, नमस्कार करने योग्यों द्वारा भी नमस्कार करते योग्य हैं, स्तुति करने योग्यों के लिए भी स्तुति करने योग्य हैं एवं सेवा करने योग्यों के लिए भी सेवा करने योग्य हैं । आप देवों में महादेव हैं, मुनियों में महामुनि हैं, गुरुओं में महागुरु हैं एवं मान्य जीवों में जगत् मान्य हैं । हे नाथ ! आप विज्ञों मे महाविज्ञ हैं, ज्ञानियों में प्रखर ज्ञानी हैं बुद्धिमानों में महाबुद्धिमान हैं एवं व्रतियों में उत्तम व्रती हैं । आप धर्मात्माओं में महाधर्मात्मा हैं, तपस्वियों में महातपस्वी हैं, पवित्रों में महापवित्र हैं एवं धीर-वीर में महा धीर-वीर हैं । आप तीनों लोकों के स्वामियों के स्वामी हैं, चक्रवर्तियों के भी चक्रवर्ती हैं, सहनशीलों में भी सहनशील हैं एवं केवली मुनिराजों में भी परम श्री जिनेन्द्र हैं । विजेताओं में सबसे उत्तम विजेता हैं, विरागियों में परम विरागी हैं, रक्षकों में महारक्षक हैं एवं ईश्वरों में महेश्वर है ॥२७०॥ जिस प्रकार हम भक्ति के वशीभूत होकर ही सूर्य को दीपक दिखाते हैं, समुद्र को जलान्जलि देते हैं एवं वनस्पति को पुष्प चढ़ाते हैं। हमारा आप को बोध कराना भी ठीक उसी प्रकार भक्ति से प्रेरित है । आप तीन ज्ञानरूपी (मति-श्रुति-अवधि) नेत्रों से समस्त हेय-उपादेय
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