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का विनाश करनेवाली कहाँ यह 'आत्मा' ? ज्ञानी पुरुष के काया तथा आत्मा इन दोनों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यह सम्बन्ध तो केवल कर्मों का किया हुआ है, क्योंकि ज्ञानी पुरुष तो अपनी उत्कष्ट आत्मा को अपनी काया से पृथक समझता है । जिस प्रकार किट्टिकाली को जला कर उससे शद्ध सुवर्ण अलग कर लिया जाता है, उसी प्रकार कर्म-रूपी काष्ठ से भरे हुए तथा अशुभ कर्मों से उत्पन्न हुए इस काया-रूपी गृह को ध्यान-रूपी अग्नि से विदग्ध कर इस काया से ही पवित्र आत्मा को अलग ग्रहण कर लिया जाता है। फिर यह जीव समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से सर्वज्ञ होकर आत्मा का कल्याण करनेवाले अत्यन्त सुख से भरे हुए नित्य तथा निरामय (रोग आदि दोषों से रहित) मोक्ष में जा कर विराजमान होता है । इसलिये जब तक काया में जीवों की ममता (ममत्व बुद्धि) बनी रहती है, तब तक वह काया भव-भव में प्राप्त होती रहती है । इसलिये चतुर पुरुषों को यह ममत्व बुद्धि अवश्य त्याग देनी चाहिये । इसलिये अपनी आत्मा का हित चाहनेवाले पुरुष दुःखों के निमित्त (कारण) तथा रोग-क्लेश उत्पन्न करनेवाली इस काया से क्या प्रयोजन सिद्ध कर सकते हैं ? जो धीर-वीर पुरुष मनुष्य देह प्राप्त कर भी शारीरिक सुख त्याग देते हैं तथा तपश्चरण से अपनी आत्मा का हित साधन करते हैं, उन्हीं का देह धारण करना सफल समझना चाहिये ॥२५०॥ जिस प्रकार ईंधन से अग्नि धधकती ही है, बुझती नहीं; उसी प्रकार जो मनुष्य भोगों से इस देह का लालन पालन करते हैं, उन्हें कभी सन्तोष नहीं हो सकता । उनकी तृष्णा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है । इसलिये अनेक प्रकार के भोगों से तथा भोगोपभोग की सामग्रियों से क्या लाभ प्राप्त हो सकता है ? क्योंकि इन भोगों से सुख प्रदायक सन्तोष कभी प्राप्त नहीं हो सकता है । ये भोग विनश्वर हैं, सर्प के फण के समान दुःखदायी हैं, इनसे कभी तृप्ति नहीं होती। ये काया की विडम्बना करनेवाले हैं तथा दुःख से उत्पन्न होनेवाले हैं । इसलिये ऐसा कौन बुद्धिमान प्राणी है, जो इनका सेवन करेगा ? जो मनुष्य काम (मदन) ज्वर से सन्तप्त होकर उसकी शान्ति के लिए रमणी रूपी औषधि की अभिलाषा करते हैं, वे तैल के प्रयोग से अग्नि की लौ को रोकना चाहते हैं । यह काम ज्वर ब्रह्मचर्य रूपी
औषधि से ही नष्ट होता है, इसलिये मनुष्यों को ब्रह्म पद (सिद्ध पद) प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का | ही पालन करना चाहिये । मनुष्यों का जीवन (आयु वा आयु कर्म के निषेक) संख्यात्मक है तथा वह
अंजुरी (हथेली) में रखे हुए जल के समान प्रतिक्षण न्यून होता रहता है, फिर भला ऐसा बुद्धिमान मनुष्य
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