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________________ श्री शां ति ना थ चक्रवर्तियों के निवास करने योग्य इन इकत्तीस देशों की राजधानी हैं-क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, औषधि, पुण्डरीकिणी, सुसीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभाकरी, अंगावती, पद्मावती, शुभा, रत्नसंचयपुरी, अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयापुरी, अरजा, अशोका, वीतशोका, विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, चक्रपुरी, खड्गपुरी, अयोध्या, अवध्या - ये इनके नाम हैं । वक्षार पर्वत, विभंगा, नदी, देश, राजधानी आदि जो उल्लखित किए गये हैं वे सब सीता नदी के उत्तर की ओर मेरु पर्वत से लेकर प्रदक्षिणा - रूप से बताए गये हैं । इनके अतिरिक्त राजकुमार मेघरथ ने भूतारण्य, देवारण्य आदि वन देखे, समुद्र देखे तथा मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की अन्य वस्तुएँ भी उन्होंने स्वयं देखीं । इस समस्त दिग्दर्शन से वे परम प्रसन्न हुए ॥ २३० ॥ उन्होंने उत्तम प्रासुक द्रव्य ( सामग्री) लेकर अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा की, भक्तिभाव से बहुविधि स्तुतियों से उनकी विलम्बपूर्वक आराधना की तथा उन्हें नमस्कार किया । इस प्रकार हृदय में भक्ति को धारण करनेवाले उन राजकुमार मेघरथ ने गणधरों की, तीर्थंकरों की तथा मुनियों की पूजा-स्तुति की तथा अनेक प्रकार से पुण्य का उपार्जन किया। इसी प्रकार पैंतालीस लक्ष (लाख) योजन प्रमाण मनुष्य-क्षेत्र का अवलोकन कर तथा तीर्थयात्रा से पुण्य उपार्जन कर राजकुमार मेघरथ अपने नगर को लौट आये। उन दोनों व्यन्तर देवों ने दिव्य आभरण तथा सुन्दर मुक्ता (मोती) भेंट पु मे अर्पित कर उनकी पूजा की । तत्पश्चात् वे अपने स्थान को लौट गए। जो मनुष्य प्रत्युपकार कर उपकार (कृतज्ञता ) रूपी समुद्र से उत्तीर्ण (पार) नहीं होता, वह गन्ध-रहित पुष्प के समान जीवित होता हुआ भी निर्जीव के समान है । जब कुक्कुट के जीव तक इस प्रकार उपकार को मानते हैं, तब फिर मनुष्य अपने स्वार्थ-संसार में क्यों निमग्न रहता है ? यदि वह दूसरों को उपकार नहीं कर सकता, तो वह अवश्य ही दुष्ट है ॥२४० ॥ अथानन्तर- किसी दिन काल-लब्धि से प्रेरित हुए वे बुद्धिमान राजा घनरथ अपने चित्त में देहादि के विषय में इस प्रकार विचार करने लगे- 'देखो ! यह जीव इस काया को इष्ट मान कर इसमें निवास करता है जब कि ये भी विष्ठा का आगार ( घर ) है तथा अत्यन्त घृणास्पद है । इस तथ्य को यह जीव नहीं जानता है, यह कितने अतिशय सन्ताप का विषय है । देखो, अत्यन्त घृणा करने योग्य, निन्द्य, शुक्र - शोणित से उत्पन्न हुआ, सप्त धातुओं से निमित्त तथा समस्त अशुद्ध द्रव्यों का स्थान कहाँ तो यह 'काया' तथा तीन लोक के नाथ, सर्वज्ञ सुख की खानि, पवित्र, ज्ञानी, पूज्य, शुद्ध तथा कर्म रूपी शत्रुओं रा ण श्री शां ति 'ना थ पु रा ण १४१
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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