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________________ . 4 Fb रक्तोदा-ये इन नदियों के नाम हैं । देखिए, ये षोडश (सोलह) सरोवर हैं, जो पद्म पुष्य (कमल) तथा उन पर बने हुए भवनों से शोभायमान हैं । यह महापद्म है, यह पद्म है, यह तिगच्छ है, यह केशरी है, यह महापुण्डरीक है, यह पुण्डरीक है, यह निषिध है, यह देवकुरु है, यह सूर्य है, यह सुसम है, यह विद्युत्प्रभ है, यह नीलवाक है, यह उत्तर कुरु है, यह चन्द्र है, यह ऐरावत है तथा यह प्रसिद्ध माल्यवान है ॥२१०॥ इनमें से प्रथम उल्लखित षट (छः) सरोवरों पर (सरोवरों में कमलों पर बने हुए भवनों में) श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी-ये छः व्यन्तरी देवियाँ निवास करती (रहती) हैं । ये व्यन्तरी देवियाँ सौधर्म तथा ऐशान इन्द्र की नियोगिनी हैं । शेष (बाकी के) सरोवर में उसी नाम के नागकुमार देव सदैव निवास करते हैं । हे महामित्र ! अब मैं आपको दर्शनीय वक्षार पर्वत दिखलाता हूँ। यह चित्रकूट वक्षार पर्वत है, यह पद्मकूट है, यह नलिन है, यह एकशैल है, यह त्रिकूट है, यह वैश्रवणकूट है, यह अन्जन है, यह आत्मान्जन है, यह शब्दवान् है, यह विकृतवान है, यह आशीविष हैं, यह सुखावह है, यह चन्द्रमाल है, यह सूर्यमाल है, यह नागमाल है, तथा यह देवमाल है-इस प्रकार ये सोलह वक्षार पर्वत हैं । ये वक्षार पर्वत बहुत ऊँचे हैं, क्षेत्रों की सीमा को विभक्त करनेवाले हैं, एक-एक पर्वत पर चार-चार कूट हैं, उनमें से एक-एक कूट पर श्री जिनेन्द्रदेव के मन्दिर हैं । इस प्रकार ये वक्षार पर्वत अत्यन्त मनोहर हैं । ये चार गजदन्त हैं, जो मेरु पर्वत से विदिशाओं की ओर चले गये हैं । मन्धमादन, माल्यवान, विद्युत्प्रभ तथा सौमनस इनके नाम हैं । इनके शिखर पर श्री जिनेन्द्रदेव के अकृत्रिम मन्दिर शोभायमान हैं तथा ये अत्यन्त उत्तम प्रतीत होते हैं । हृदा, हृदयवन्ती, पकवती, तप्तजला, मत्तजला, मदोन्मत्तजला, क्षीरोदा, सीतोदा, श्रोतवाहिनी, गम्भीरमालिनी, फेनमालिनी, ऊर्मिमालिनी-ये बारह विभगा नदी हैं । ये विदेह के पृथक्-पृथक् क्षेत्रों की सीमाएँ हैं । ये सुन्दर नदियाँ कुण्डों से निकल कर महानदियों में गिरती हैं ॥२२०॥ हे राजन् ! कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावती, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, |१४० महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, रम्यका, रमणीया, मंगलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखनलिनी, कुमुदा, सरिदा, बप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गन्धा, सुगन्धा, गन्धावती, गन्धमालिनी-ये विदेहक्षेत्र के इकत्तीस क्षेत्र हैं । ये चिरस्थायी (सर्वदा बने रहते) हैं, धर्म से विभूषित रहते हैं तथा स्वर्गमोक्ष के निमित्त. (कारण) हैं । हे महाभाग ! इधर देखिये, ये धर्मात्मा प्राणियों से भरी हुई, बहुत ही मनोरम तथा 444 -
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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