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________________ श्री ना राजकुमार मेघरथ को नमस्कार किया, पूर्व जन्म के स्नेह के वशीभूत होकर भक्तिपूर्वक दिव्य वस्त्रआभूषणों से बारम्बार उनकी पूजा एवं स्तुति की। तदनन्तर वे दोनों ही विद्याधर शरीर, भोग एवं संसार से विरक्त हुए तथा संयम धारण करने के लिए गोवर्द्धन मुनिराज के समीप पहुँचे । मन-वचन-काय से मुनिराज को नमस्कार कर एवं परिग्रहों का त्याग कर मुक्ति प्राप्त करने के लिए मोक्ष रूपी चिरस्थायी लक्ष्मी की प्रदायक जिनेश्वरी दीक्षा धारण की। उन दोनों ने अनिन्द्य, घोर, असह्य तपश्चरण किया, शुक्लध्यान रूपी शस्त्र से घातिया कर्म रूपी अनादि शत्रुओं का विनाश कर अनन्त गुणों का समुद्र तथा लोकालोक को शां प्रकट करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रों ने समग्र देवताओं सहित उसी समय आकर उनकी पूजा की ॥१८०॥ अन्त में उन्होंने शुक्लध्यान रूपी अग्नि से शेष कर्म रूपी ईंधन को विदग्ध किया ( जलाया ) ति एवं अन्तर्मुहर्त्त ( एक समय) में ही अनन्त सुख के स्थानभूत लोक के शिखर (सिद्धशिला) पर जा विराजान हुए। इधर दोनों कुक्कुट भी पाप कर्म के उदय से प्राप्त अनेक प्रकार के महा दुःखदायी पूर्व भव की शत्रुता का पूर्ण वृत्तान्त सुनकर अपने-अपने चित्त में ही अपनी निन्दा करने लगे । उन दोनों ने भी अनन्त सुखदायक वैराग्य धारण किया, परस्पर की शत्रुता त्यागी एवं जीवन पर्यन्त शुभ अनशन व्रत (उपवास) धारण किया। उन दोनों ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार क्षुधा (भूख) पिपासा ( प्यास ) आदि परीषहों को सहन किया एवं अपने-अपने हृदय में श्री जिनेन्द्रेव का स्मरण करते हुए धर्म धारणापूर्वक वे रहने लगे । उन्होंने प्रतिदिन के कायक्लेश से देह को दुर्बल कर लिया एवं शुभ ध्यानपूर्वक विधि सहित प्राणों का त्याग किया। धर्म के प्रभाव से वे दोनों ही कुक्कुट मर कर भूतारण्य एवं देवारण्य नामक वनों में क्रमशः ताम्रचूल एवं कनकचूल नामक व्यन्तर (भूत) जाति के देव हुए। दिव्य गुणों से सुशोभित उन दोनों देवों ने अपने-अपने अवधिज्ञान से उसी समय अपने पूर्व भवों की समस्त कथा ज्ञात कर ली एवं परस्पर अपना सम्बन्ध भी जान लिया । वे दोनों ही विचार करने लगे- 'कहाँ तो हम मांसभक्षी, निन्द्य, हीन पक्षी थे तथा कहाँ हमें राजकुमार मेघरथ द्वारा जीव दयापालन का सदुपदेश प्राप्त हुआ । इस समय यदि हम वहाँ जाकर उस धर्मात्मा का प्रत्युपकार न करें, तो फिर इस संसार मे हमारे समान कृतघ्न भला अन्य कौन होगा ?' इस प्रकार विचार कर वे दोनों देव वहाँ आए एवं अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेघरथ को प्रणाम किया, दिव्य वस्त्र - माला- आभूषण आदि से उनकी पूजा की ॥ १९०॥ उन्होंने उनकी बारम्बार प्रशंसा की थ पु रा ण श्री शां ति ना थ पु रा ण १३८
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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