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पन्चाश्चर्यों को देख कर तथा काल-लब्धि के प्राप्त हो जाने से राजा अभयघोष उसी समय संवेग को प्राप्त हुआ । वह विचार करने लगा- 'देखो ! जैन मुनियों को दान देने के फल से ही जब यह मनुष्य क्षणमात्र में ही देवों के द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य उत्तम वैभव रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करता है तो उन उत्तम मुनियों को तपश्चरण के प्रभाव से स्वर्ग-मोक्ष आदि परलोक में कौन-सी उत्तम लक्ष्मी प्राप्त होगी, यह तो कल्पनातीत है । पाप रूपी समुद्र के मध्य में रहनेवाली इस गृहस्थी से भला क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि इस में रहते हुए मनुष्यों को मोक्ष-रूपी नारी का मुखकमल कभी दिखाई ही नहीं दे सकता । इसका कारण यह है कि गृहस्थ कभी - कभी दान, पूजा आदि के द्वारा स्वल्प मात्रा में पुण्य सम्पादन करता तो अवश्य है, परन्तु कालक्रम में वह हिंसा आदि पाप-कार्यों के द्वारा पाप का सन्चय अधिक कर लेता है । गृहस्थ व्यापार रूपी कार्यों के समुद्र में सदैव निमग्न रहता है एवं बहुत-सी चिन्ताओं से घिरा रहता है, इसलिये वह कभी सुखी नहीं हो सकता । उसे सदैव दुःख ही भोगने पड़ते हैं । गृहस्थ धर्म यदि कल्याण करानेवाला ही होता, तो तीर्थंकर इसे त्यागते ही क्यों एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए राज्य लक्ष्मी को त्याग कर दीक्षा धारण क्यों करते ? इस संसार में केवल मुनियों को ही उत्तम प्रकार का सुख प्राप्त होता है, क्योंकि वह सुख सर्वप्रकारेण चिन्ताओं से रहित है, आत्मा से उत्पन्न हुआ है एवं ध्यान से प्रगट हुआ है । संसार में पु वे ही मुनिराज धन्य हैं, जो आत्मानन्द रूपी अंजुलि के पात्र द्वारा हृदय रूपी घट से निकाल कर ध्यान रूप अमृत का सदैव पान करते रहते हैं ॥१४०॥ यह संसार अपार दुःखों से परिपूर्ण है, यदि इसमें कहीं सुख है तो वह केवल मुनियों को ही प्राप्त है, क्योंकि वह सुख केवल आत्मा से ही प्रगट होता है । इस संसार में अन्य किसी प्राणी को वास्तविक सुख प्राप्त नहीं है । यदि मुनियों को इस संसार में विषयों से रहित उत्तम सुख न प्राप्त हों, तो फिर चक्रवर्तीगण अपनी इतनी विपुल विभूति को त्याग कर तपश्चरण क्यों धारण करते ? इसलिये मैं मानता हूँ कि आत्मा से प्रगट हुआ उपमा रहित पूर्ण सुख तो वीतराग मुनियों को ही है, अन्य रागी-द्वेषी जीवों को वह सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता ।' इस प्रकार विचार कर राजा अभयघोष ने शीघ्र ही राज्य का त्याग तुच्छ तृण के समान किया । अपने दोनों पुत्रों को संग ले कर वह अनंगसेन मुनिराज के समीप पहुँचा । वहाँ जाकर राजा ने तीनों लोकों का हित करनेवाले उन मुनिराज को नमस्कार किया एवं उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं । उन्होंने बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग
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