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________________ है, पुण्य के फल के समान उसमें बहुत-से फल लगे हुए हैं, अत: आप अवलोकन के लिए पधारें । दासी की उक्ति सनकर रानी सुवर्णतिलका के अनुरोध के कारण जब राजा उस उद्यान में जाने के लिए प्रस्तत हुए, तो पृथ्वीतिलका ने अपनी विद्या के बल से उसी समय वहीं पर सब ऋतुओं के फल-पुष्यों से भरा हुआ एक सुन्दर उद्यान बना कर प्रदर्शित कर दिया एवं राजा से कहा-'हे देव ! आप इस मनोरम उद्यान को तो देखिए एवं किसी अन्यत्र स्थान पर मत जाइए।' इस प्रकार कह कर उसने राजा अभयघोष के अन्यत्र गमन का विरोध करना चाहा । परन्तु पृथ्वीतिलका के प्रस्ताव को अस्वीकार कर राजा अभयघोष सुवर्णतिलका के उद्यान को देखने चले ही गए । मानभंग होने के कारण विद्याधरी पृथ्वीतिलका को गहन विषाद हुआ ॥१२०॥ वह विचार करने लगी-'इस पराधीन नारी जाति को धिक्कार है । यह नारी-पर्याय ही दुःख का कारण है । इस पर्याय में मोक्ष भी नहीं मिलता । यह पर्याय निन्द्य, अपवित्र एवं अशुभ है । जो भोग बिना सम्मान के भोगे जाते हैं, वे दुःख के सागर समतुल्य हैं तथा इस जीव को चारों गतियों में परिभ्रमण करानेवाले हैं, वे समस्त भोग आज मेरे पूर्ण हों, अर्थात् अब मैं उन्हें भोगना नहीं चाहती।' इस प्रकार चिन्तवन कर वह वैराग्य को प्रवृत्त हुई एवं गृह, भोग तथा पति को त्याग कर सुमति नाम की गणिनी (आर्यिका) के समीप पहुँची । उस सती ने वहाँ जाकर उनको नमस्कार किया, एक साड़ी के अतिरिक्त अन्य समस्त परिग्रहों का त्याग किया एवं सर्व प्रकार से सुख प्रदायक उत्तम दीक्षा धारण की । देखो ! संयम धारण करने के लिए कभी मान करना भी श्रेयस्कर होता है, क्योंकि आसन्न भव्य जीवों के लिए वह मान आत्मा की हित सिद्धि का कारण बन जाता है । अथानन्तर-एक दिन राजा अभयघोष ने मध्याह्न के समय परम प्रसन्नता के साथ दमवर नामक श्रेष्ठ मुनिराज की पड़गाहना की, जिससे उन्हें श्रेष्ठ धर्म का उपार्जन हुआ । जैन धर्म में श्रद्धा की अभिलाषा रखनेवाले उस राजा ने अशुभ कर्मों का विनाश करने के लिए दाता के सप्त गुणों से विभूषित होकर नवधा (नौ प्रकार की विधि) भक्तिपूर्वक उन मुनिराज को प्रासुक, मिष्ट, सरस, उत्तम आहार निरन्तराय (निर्विघ्न) प्रदान किया । तत्काल अर्जित किये हुए पुण्य के प्रभाव से राजा अभयघोष के महल के प्रांगण में रत्नवृष्टि आदि उत्तम पंचाश्चर्य प्रगट हुये ॥१३०॥ पात्र दान के फल से जिस प्रकार इहलोक में भारी विभूति प्राप्त होती है। उसी प्रकार परलोक में स्वर्ग-मोक्ष प्रदायक अनेक प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त होती है। दान के प्रभाव से प्राप्त हुए
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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