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जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं की वन्दना के निमित्त सिद्धकूट चैत्यालय में गए थे ॥१००॥ वहाँ पर उन्होंने भगवान की पूजा-स्तुति की, नमस्कार किया एवं धर्म श्रवण करने की अभिलाषा से वहाँ पर विराजमान || दो चारण मुनियों के समीप वे पहुँचे । वे दोनों ही मुनि अवधिज्ञानी थे, चतुर थे एवं देव भी उनकी उपासना करते थे । उन दोनों विद्याधरों ने बड़ी भक्ति से उनकी तीन. प्रदक्षिणाएँ दीं; मस्तक नवा कर उन्हें नमस्कार किया एवं समीप जाकर बैठ गए । उनमें से ज्येष्ठ मुनि ने स्वर्ग प्राप्त करानेवाले गृहस्थ-धर्म का तथा मोक्ष के कारण मुनि धर्म का निरूपण किया एवं करुणा परवश उपदेश दिया-'यह धर्म ही सुखों की खानि है । मनुष्यों के परलोक के लिए यही पाथेय (साथ ले जाने योग्य) है एवं यही पापों का नाश करनेवाला है तथा उत्तम है ।' मुनि के द्वारा वर्णित एवं भव-संसार से उत्तीर्ण करा देनेवाले जैन धर्म का वृत्तान्त सुन कर दोनों ने मुनि को नमस्कार कर अपने पूर्व जन्मों के भव पूछे । उन्होंने जिज्ञासा की-'हे स्वामी ! हम दोनों ने पूर्व भव में ऐसा कौन-सा तप किया था या व्रत पालन किया था, या भगवान का पूजन किया था, जिससे हम दोनों को विद्याधरों की विभूति प्राप्त हुई है ? हे देव ! हमे आनन्दित करने के लिए यह वृत्तान्त कृपापूर्वक आद्योपांत निरूपित कीजिए।' उन दोनों पर अनुग्रह करने के लिए ही मुनिराज कहने लगे-'हे विद्याधरों ! मैं जो वृत्तान्त कहता हूँ, तुमलोग ध्यानपूर्वक उसे सुनो। धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु की उत्तर दिशा की ओर ऐरावत क्षेत्र में तिलकपुर नाम का एक नगर है। उसमें अभयघोष नामक धर्मात्मा राजा राज्य करता था एवं उसके निर्मल हृदयवाली सुवर्णतिलका नाम की रानी थी ॥११०॥ उन दोनों के दो पुत्र हुए थे-विजय एवं जयन्त जिनके नाम थे । वे दोनों ही भ्राता धीर-वीर थे, शुभ लक्षणों से अलंकृत थे तथा नीतिवान एवं पराक्रमी थे । उसी देश के विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मन्दर नाम का एक नगर है, जहाँ शंख नामक विद्याधर राज्य करता था । उसकी रानी का नाम जया था । उन दोनों के पृथ्वीतिलका नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी । वह अत्यंत रूपवती थी, पुण्य कर्म करनेवाली थी एवं अनेक श्रेष्ठ लक्षणों से सुशोभित थी । पुण्य कर्म के उदय से उस सुन्दरी विद्याधरी के साथ विधिपूर्वक अभयघोष ने विवाह किया था। राजा अभयघोष एक वर्ष तक निरंतर उसमें आसक्त रहा, इसलिए पाप कर्म के उदय से सुवर्णतिलका (पहिली रानी) बड़ी दुःखी हुई । बसन्त-ऋतु के समय एक दिन सुवर्णतिलका की दूती चन्चतलिका ने आकर राजा से कहा-'हे देव ! रानी सुवर्णतिलका का उद्यान बहुत ही सुन्दर एवं मनोहर
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