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पीड़ा से वे बहुत दुःखी हुए तथा लड़ते-लड़ते दोनों ही अन्त में मर गए । वे दोनो भ्राता आर्तध्यान रूपी महापाप से मरे थे, इसलिए वे काँचन नदी के तट पर श्वेतकर्ण तथा ताम्रकर्ण नामक हस्ती हुए। वे दोनों गजराज भी क्रोधी ही थे, साथ ही मदोन्मत्त एवं बलवान थे । संयोग से पूर्व जन्म की शत्रुता उनके संस्कार में जन्म से ही थी । देखो ! जो क्रोध करते हैं, उनकी क्या दुर्गति होती है ! यहाँ पर भी पूर्वभव के कर्मों के उदय से वे दोनों क्रोधित होकर लड़ने लगे तथा अपने शक्तिशाली दन्तों से एक-दूसरे को पीड़ा पहुँचाने लगे । परस्पर प्रहारों के प्रबल आघात से आहत वे दोनों ही दुःख होकर मर गए । वे दोनों गजराज अपने पाप कर्म के उदय से अयोध्या नगर के नन्दिमित्र नामक ग्वाल की भैंसों के यूथ (झुंड) में भैंसे हुए । वहाँ पर भी पूर्व जन्म के बैर के संस्कार से उन दोनों मूढ़ों ने परस्पर सन्ताप देनेवाला भीषण द्वन्द्व-युद्ध किया । बहुत काल तक वे एक-दूसरे को सींगों के प्रबल प्रहारों से आहत करते रहे एवं अन्त में दोनों ही लड़ते-लड़ते मर गए । अगले भव में वे उसी नगर के राजपुत्रों शक्तिसेन एवं वरसेन के यहाँ वज्र सरीखे दृढ़ मस्तकवाले मेढ़े हुए ॥९०॥ यहाँ पर भी पूर्व जन्म के विद्वेष भाव के कारण वे बहुत दिन तक परस्पर लड़ते रहे एवं अन्त में मर कर पाप कर्म के उदय से ये दोनों कुक्कुट हुए हैं । इसलिए हे राजन् ! यह निश्चित है कि पूर्व भव के संस्कार से प्राणियों की शत्रुता या मित्रता-दोनों ही अनेक भवों तक निरन्तर साथ चली जाती है । इसलिए हे राजन् ! बुद्धिमान प्राणियों को प्राणनाश होने पर भी किसी दीन-हीन के साथ दुःख देनेवाला बैर कर्मों नहीं बाँधना चाहिए।' इस प्रकार विद्वान मेघरथ ने उन दोनों कुक्कुटों के पूर्व भव की कथा कह कर समस्त सभासदों को आश्चर्य चकित कर दिया एवं उनकी जिज्ञासा को भी सन्तुष्ट कर दिया। तत्पश्चात् मेघरथ कहने लगे: 'इन दोनों कुक्कुटों के संग्राम के समय अनेक विद्याओं में निपुण दो विद्याधर आपके स्नेह से प्रसन्न होकर यहाँ आकर बैठे हुए हैं । वे विद्याधर कौन हैं एवं यहाँ क्यों आए हैं ? यह सब आप सुनना चाहें, तो हे राजन् ! अनुमति दें। मैं उन दोनों की कथा कहता
१३२ हूँ। इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्द्ध पर्वतमाला की उत्तर श्रेणी में कनकपुर नगर है । उसमें अपने पुण्य कर्म के उदय से गरुड़वेग नामक विद्याधर राज्य करता था। उसकी अनिन्द्य रूपवती रानी का नाम धृतिषेणा था । उन दोनों के देवतिलक एवं चन्द्रतिलक नामक दो पुत्र हुए, जो प्रतापी, धीर-वीर एवं मोक्षगामी थे । एक दिन वे दोनों भ्राता अपने अशुभ कर्मों का निवारण करने के लिए भगवान श्री -
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