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________________ तीर्थंकर राज्य करते थे। उनके उत्पन्न होने के पूर्व ही उनके पिता के राजमहल के प्रांगण में कुबेर ने छः मास तक रत्नों की वर्षा की थी। उनके गर्भाक्तार के समय इन्द्र ने देव-देवियों के साथ आकर बड़ी भक्ति से उनके माता-पिता की पूजा एवं स्तुति की थी । उनके उत्पन्न होते ही सकल देवों के द्वारा इन्द्रगण उन्हें मेरु पर्वत पर ले गए थे तथा बड़ी भक्ति से क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया था । 1 उस बाल्यावस्था में ही इन्द्राणी ने स्वर्ग में उत्पन्न हुए वस्त्र, माला, आभूषण आदि उत्तम पदार्थों से स्वयं उन (बाल जिनेन्द्र ) को विभूषित किया था । उनकी बाल्यावस्था में ही पुण्य उपार्जन करने के लिए इन्द्र अपनी इन्द्राणी के साथ उनकी सेवा करते थे । उनके रूप को निहार कर इन्द्र के चित्त में भी आश्चर्य उत्पन्न हुआ था एवं अतृप्त होकर उसने उस रूप को देखने के लिए एक सहस्रं ( हजार ) नेत्र बना लिए ति थे । उनका रूप अत्यन्त दिव्य था, दिव्य गुणों से विभूषित था, उपमा रहित था एवं कलाओं से सुशोभि था, उसका वर्णन भला कौन कर सकता है ? ॥४०॥ उनकी देह में स्वेद ( पसीना ) नहीं आता था, दुग्ध के सदृश उनका रुधिर था, प्रथम सम-चतुरस्र - संस्थान था, वज्रवृषभ - नाराच संहनन था अर्थात् वज्रमय अस्थियों से निर्मित वज्रमय देह थी । उस काया में सम्पूर्ण पुण्य रूप परमाणुओं से बना हुआ उत्तम सौरूप्य (सुन्दरता) गुण था, उनके श्वास में इतनी सुगन्धि थी कि समस्त दिशाओं में उसकी सुगन्धि विकीर्ण हो पु जाती थी, वह आकृति (देह) महादिव्य लक्षणों से एवं व्यन्जनों से सुसज्जित थी, शुक्लध्यान के योग्य प्रमाण महावीर्य (शक्ति) था तथा उनकी वाणी शुभ, प्रिय तथा सर्व जीवों का हित करनेवाली थी । एकादश दिव्य अतिशय भगवान के जन्म से ही प्रगट हुए फिर भला उनके गुणों का अलग-अलग वर्णन करने से क्या लाभ है ? जब वे धीर-वीर राज्य - सिंहासन पर विराजमान थे; तभी देव, विद्याधर आदि उनकी सेवा करते थे, फिर भला सामान्य राजाओं की तो गणना ही क्या थी? वे जिनेन्द्र भगवान स्वर्ग में आयोजित होनेवाले नृत्य, गीत, आभूषण, वस्त्र आदि उत्तम से उत्तम भोगों के द्वारा प्रतिदिन सुख - रसास्वादन का अनुभव किया करते थे । इस संसार में उन घनरथ तीर्थंकर के समस्त इन्द्रियों को तृप्त करनेवाले अपार सुख का अनुमान भला कौन कर सकता है ? घनरथ की मनोहरा नामक एक रानी थी, जो गुणवती, सौभाग्यवती, पुण्यवती तथा अनेक शुभ लक्षणों से सुशोभित थी । उन दोनों के यहाँ वज्रायुध का जीव ग्रैवेयक से चय कर पुण्य कर्म के उदय से मेघरथ नाम का पुत्र हुआ था ॥५०॥ उन्हीं घनरथ तीर्थंकर की श्री शां 4 ना थ РЕБ रा ण श्री शां ति ना थ पु रा ण १२९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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