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________________ FFFF तथा सुवर्ण एवं मणिक आदि से निर्मित श्री जिनेन्द्रदेव की अनेक प्रकार की प्रतिमाओं से सशोभित हैं, देव भी उनकी सेवा करते हैं, अनेक प्रकार की शोभा से वे शोभायमान हैं एवं गीत, नृत्य वाद्य तथा स्तुति के अविराम शब्दों से सदा गुंजायमान रहते हैं । गगनचुम्बी भवनों के शिखरों पर लगी हुई ध्वजाओं से वह नगरी ऐसी भव्य प्रतीत होती है, मानो मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए देवों का ही आहवान कर रही हो । वहाँ पर केवल पुण्यवान मनुष्य ही अपने सन्चित पुण्य का फल भोगने के लिए ही श्रेष्ठ कलों में उत्पन्न होते हैं, पापी प्राणी वहाँ पर कभी उत्पन्न नहीं होते । कितने ही पुण्यवान जीव अनेक प्रकार के भोगों का आनन्द लेते हुए भी दान, पूजा, तप एवं व्रतों का पालन कर अपार.पुण्य उपार्जन करते हैं ॥२०॥ जिस प्रकार धर्म के प्रभाव से मनुष्य द्रव्य से ही द्रव्य कमाते हैं, उसी प्रकार वहाँ के मनुष्य धर्म से ही धर्म ही वृद्धि करते हैं । उस नगरी में जो उत्तम मनुष्य उत्पन्न होते हैं, वे अपने पूर्व भव के पुण्य कर्म के उदय से त्यागी, भोगी, धीर-वीर, अनेक शास्त्रों में निपुण, सुन्दर, मधुरभाषी, व्रती, शीलवान, सम्यग्दृष्टी, बुद्धिमान, विद्वान, अत्यन्त चतुर, विवेकी, सदाचारी, अनेक प्रकार की गुण रूपी लक्ष्मी से सुशोभित, दुराचार एवं पापों से रहित, न्यायमार्ग के पथिक, श्री जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों के भक्त, नीच देवों से विमुख, निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा करने में आसक्त, कुगुरुओं की सेवा रहित, विनयवान, उत्तम भावनावाले एवं धर्मध्यान में तत्पर होते हैं । इसी प्रकार उपरोक्त समस्त गुणों से सुशोभित एवं सुख प्रदायनी रमणी ही वहाँ उत्पन्न होती हैं । उस नगरी में उत्पन्न हुए कितने ही चरम शरीरी चतुर पुरुष संयम रूपी तीक्ष्ण शस्त्र से कर्म रूपी शत्रुओं का समूल विनाश कर मुक्त होते हैं । कितने ही पुरुष चारित्र धारण कर स्वर्ग जाते हैं, कितने ही इन्द्र की विभूति प्राप्त करते हैं, तथा कितने ही ग्रैवेयक के सुख भोगते हैं। कितने उत्तम | मुनि पुण्य कर्म के उदय से रत्नत्रय का आराधन कर सर्वार्थसिद्धि आदि पन्चोत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं । उस नगरी के कितने ही भद्र पुरुष अपने शुद्ध भावों से उत्तम पात्रों को दान देकर भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ पर अनेक प्रकार के भोग भोगते हैं ॥३०॥ उस नगरी में असंख्यात तीर्थंकर, गणधर, केवलज्ञानी तथा धीर-वीर चरम-शरीरी मुनि उत्पन्न होते रहते हैं, जिनकी चक्रवर्ती तथा विद्याधर पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं तथा स्तुति करते हैं। फिर भला उस नगरी का अधिक वर्णन करने से अब क्या लाभ है ? इस प्रकार अनेक गुणों से अलंकृत उस नगरी में समस्त नृपतियों के शिरोमणि घनरथ नामक FF FRE १२८
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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