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________________ दशवाँ अधिकार श्री मैं अपने अशुभ कर्मों को शांत करने के लिए, विघ्नों का निवारण करनेवाले, समस्त संसार को शांति प्रदान करनेवाले, कर्म रूपी शत्रुओं के समूह को शांत करनेवाले एवं समस्त संसार जिन्हें नमस्कार करता है, ऐसे श्री शांतिनाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अथानन्तर-जम्बू वृक्ष से सुशोभित ऐसे जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र मे पुष्कलावती नाम का एक देश है। तीन ज्ञान को धारण करनेवाले देव भी मोक्षप्रद प्राप्ति के लिए उस देश में जन्म लेने के लिए लालायित रहते हैं। उस देश में भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने के लिए एवं तीर्थयात्रा करने के लिए धीर-वीर दयालु मुनिगण सदैव विहार करते रहते हैं । उस देश में जिनालय के अतिरिक्त न ग्राम थे, न द्वीप थे, न खेट थे, न मंटव थे, न कर्वट थे एवं न पटटन ही थे । वहाँ पर भोगोपभोगों से परिपूर्ण पुण्यशाली असंख्यात शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं; जिन्हें देव, मनुष्य सब नमस्कार करते हैं । हंस आदि उत्तम पक्षियों से शोभायमान एवं निर्मल जल से परिपूर्ण मनोहर सरोवर, बावड़ी, नदी एवं कूप चारों दिशाओं से शोभायमान हैं । वहाँ के खेत प्राणियों को तृप्त करनेवाले फलों से तथा मुनियों के तपश्चरण के समान सर्वदा सफल बने रहते हैं । वहाँ वन के ऊँचे वृक्ष पुष्प-फलों से शोभायमान होकर अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत होते हैं । वृक्षों के नीचे ध्यान धारण किए हुए मुनिराज विराजमान हैं, जो स्वयं कल्पवृक्ष के तुल्य प्रतीत होते हैं । वहाँ पर स्थान-स्थान पर देव, विद्याधर एवं मनुष्यों के द्वारा पूज्य तीर्थंकर एवं गणधरों की उत्तम निर्वाण- भूमियाँ विद्यमान हैं ॥१०॥ वहाँ पर श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा वर्णित आदि एवं अन्त रहित, हिंसा से मुक्त, समस्त प्राणियों का हित करनेवाला एवं सदैव स्थिर रहनेवाला धर्म सदा विद्यमान रहता है । जिस प्रकार देह के मध्य भाग में नाभि रहती है, उसी प्रकार उपरोक्त गुणों से परिपूर्ण उस देश के मध्य भाग में पुण्डिरीकिणी नाम की शुभ नगरी है। वह नगरी सुवर्ण व रत्नों से निर्मित चिरस्थायी कोट से एवं उसके उच्च द्वारों से सदा शोभायमान रहती है । वहाँ के अकृत्रिम जिनालय धर्म के सागर के समान शोभायमान हैं, वे जिनालय सुमेरु पर्वत के शिखर के समान गगनचुम्बी हैं, अनेक प्रकार के रत्नों से शोभायमान हैं, उनमें मणियों के मण्डप बने हुए हैं, उनके चारों ओर कोट बने हुए हैं, उन पर बहुत-सी ध्वजायें फहरा रही हैं, धर्मात्मा नर-नारियों से वे परिपूर्ण हैं, धर्म के उपकरण शां ति ना थ पु रा ण श्री शां ति 5 5 5 5 ना थ पु रा ण १२७
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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