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________________ भाते थे, श्रुतज्ञान का पाठ करते थे, मुक्तिरूपी रमणी में आसक्त रहते थे एवं धर्म के श्रेष्ठ गणों की चर्चा किया करते थे । वे (चक्रवर्ती का जीव) धारण किये हुए चारित्र के फल से, घोर तपश्चरण से, सम्यग्दर्शन ज्ञान के बल से एवं शुद्ध मन से, जो कुछ पुण्य पूर्व में सन्चय किया था, उसके उदय से पुत्र के साथ अहमिन्द्र होकर उस विमान में अत्यन्त निर्मल एवं सारभूत सुख का अनुभव करते थे । यही समझ कर बुद्धिमानों को चारित्र धारण कर सदैव धर्म का पालन करना चाहिये । बहुत अधिक कहने से भला क्या लाभ है ? सज्जनों को मनुष्य जन्म एवं श्रेष्ठ कुल प्राप्त कर बड़े प्रयत्न से सर्वप्रकारेण कल्याणकारी जैन धर्म का पालन करना चाहिये । संसार में श्रेष्ठ धर्म ही पिता है, धर्म ही भ्राता है, धर्म ही पूर्व जन्म की माता है, धर्म ही धन आदि का सुख प्रदायक है एवं धर्म ही जीव का हित करनेवाला है । आत्मा के गुणों की अभिवृद्धि करनेवाला धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं । श्री जिनेन्द्र देव का वर्णित धर्म ही 'तीर्थंकर' पद प्रदान करने के लिए एकमेव सक्षम है, धर्म ही चक्रवर्ती एवं इन्द्र की विभूति का हेतु है, धर्म ही अनन्त सुख प्रदाता है एवं धर्म ही सब से उत्तम है । इसलिये उत्तम पुरुष सदैव ही धर्म का पालन करते हैं ॥२९०॥ संसार में धर्म ही स्वर्ग रूपी गृह का आँगन है, धर्म ही हित करनेवाला है, धर्म ही मोक्ष सुख प्रदायक है, धर्म ही अनन्त गुणों का समुद्र है । श्री जिनेन्द्र देव भी इसका सेवन करते है । यह धर्म चारित्र को धारण करने से प्रगट होता है एवं समस्त प्रकार के पापों का विनाश करनेवाला है । जो बुद्धिमान निशि-दिन इस धर्म का पालन करते हैं, मुक्ति लक्ष्मी भी उनकी महीषी हो जाती है। फिर भला स्वर्ग की वैभव-लक्ष्मी की तो गणना ही क्या ॥३००॥ श्री शान्तिनाथ भगवान उत्तम-क्षमा आदि शांत गुणों को धारण करनेवालों को शांति प्रदान करनेवाले हैं, शांति के स्थान हैं, शांति को धारण करनेवाले हैं, एकमात्र शांतिरूपी रस में ही निमग्न हैं, अत्यन्त निर्मल हैं, अशुभ कर्मों को शांत करनेवाले हैं, धीर-वीर हैं, अशांति का निवारण करनेवाले हैं, धर्म के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करनेवालों को विनष्ट करनेवाले हैं एवं ख | १२६ मोक्ष प्राप्त करनेवाले को सर्वरूपेण शांति प्रदान करनेवाले हैं । ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। . इस प्रकार श्री शान्तिनाथ पुराण में अहमिन्द्र भव का निरूपण करनेवाला नवमा अधिकार समाप्त हुआ ॥९॥ 444444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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