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________________ 4Fb इस संसार में श्रेष्ठ आत्माओं को ज़ब तक कर्मों के विनाश से उत्पन्न होनेवाला अनन्त सुख प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उन्हें सांसारिक सुखों से कभी तृप्ति नहीं होती । मनुष्यों को क्षुधा शमन के समय अन्न द्वास अथवा ज्वर-दाह के समय औषधि द्वारा जो सुख प्राप्त होता है, वह सुख नहीं है, वरन् दुःख है । इसमें || कोई सन्देह नहीं । जिस प्रकार कोई उत्तम जीव बुद्धि के भ्रष्ट हो जाने से अपनी माता को भी भोग्या नारी-स्वरूपा समझ लेता है, उसी प्रकार यह जीव अपनी बुद्धि के भ्रम से बड़ी कठिनता से प्राप्त होनेवाले, दुःख से उत्पन्न होनेवाले तथा आगे भी दुःख देनेवाले कामजन्य सुख को चरम सुख मान लेता है । रति सुख पराधीन है, चन्चल है तथा विषयों से उत्पन्न हुआ है, इसे पशुओं ने भी स्वीकार किया है । फिर भला ज्ञानी जन इसकी अभिलाषा कैसे कर सकते हैं ? कामजन्य जो सुख है, वह अनेक जीवों का विनाश करनेवाला है, राग से परिपूर्ण है तथा नियम (परम्परा) से नरक के दुःखों का निमित्त (कारण) है, विद्वतजनों ने ऐसा ही माना है । जो सुख विषयों से रहित है, अपनी आत्मा से उत्पन्न हुआ है, नारी आदि से रहित है, चिरस्थायी है तथा तपश्चरण से उत्पन्न हुआ है। वह सुख मुनियों द्वारा मान्य गिना जाता है । यदि वह अनन्त सुख कठिन तपश्चरण से भी मिल जाये; तो फिर ऐसा कौन बुद्धिमान है, जो प्रचण्ड दुःखदायी क्षणिक सुखों से आत्मा को निरूपित करेगा ?' इस प्रकार चिन्तवन कर राजा सहस्रायुध ने काम, राज्य आदि समस्त सांसारिक बन्धनों को त्याग कर अपने चित्त में संयम धारण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया । तदनन्तर जिनकी समस्त सांसारिक कामनाएँ नष्ट हो गई हैं एवं जिनकी आत्मा संवेग गुण से सुशोभित हो रही है, ऐसे राजा सहस्रायुध ने अपार विभूति के साथ अपना राज्य पुत्र शतबल को सौंप दिया ॥२५०॥ इसके पश्चात् पुण्य कर्म के उदय से राजा सहस्रायुध समस्त दोषों से रहित, धर्म के स्थान एवं कर्मों के आसव से रहित पिहिताश्रव मुनिराज के समीप पहुँचे । उन्होंने उन मुनिराज को मस्तक नवाकर नमस्कार किया, बाह्य-अन्तरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग किया एवं दुःखों का नाश करनेवाली तथा मोक्ष प्रदायक उत्तम मुनि-दीक्षा धारण की । सहस्रायुद्ध मुनिराज निशि-दिन काया को क्लेश पहुँचानेवाला असह्य तपश्चरण करने लगे एवं अपने योग के अन्त में वज्रायुध मुनि के समीप पहुंचे । वे दोनों (वज्रायुध एवं सहस्रायुध) मुनिराज भयोत्पादक एवं कठिन तपश्चरण का पालन कर वैभार पर्वत पर पहुँचे । उन्होंने अपने तप ज्ञान से अपनी-अपनी आयु को अल्प समझ कर समस्त देह से ममत्व एवं आहार करना त्याग 944 ॐ 44444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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