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कर मृत्य पर्यन्त संन्यास धारण किया । उन दोनों मुनियों ने उत्तम क्षमा, सन्तोष आदि अस्त्रों द्वारा स्थिति-बन्ध करनेवाले कषाय-रूपी शत्रुओं का निग्रह किया । उन्होंने आमरण घोर एवं कठिन प्रोषधोपवासों से तथा शीत-उष्ण आदि सब तरह के दुःखदायक घोर परीषहों से अपनी देह को रुधिर-मज्जा से रहित, केवल अस्थि का ढाँचा, चर्म से ढंका हुआ भयानक, कृश एवं बहुत क्षीण बना दिया था । वे दोनों ही मुनि समस्त दोषों से रहित थे एवं मुक्ति रूपी लक्ष्मी की जननी दर्शन-ज्ञान-चारित्र का उत्तम आराधन करते थे। वे दोनों ही चतुर मुनि अशुभ ध्यानों को त्याग कर कभी तो एकाग्रचित्त से श्री जिनेन्द्रदेव का ध्यान करते थे एवं कभी अपनी आत्मा का ध्यान करते थे ॥२६०॥ उन्होंने काया रहित सिद्धि पद प्राप्त करने के लिए समस्त प्रकार के दुःखों का कारण अपने शरीर का ममत्व सर्वथा त्याग दिया था । उन्होंने वैराग्य से आप्लावित अपना मन श्रेष्ठ धर्मध्यान के द्वारा सर्वथा आत्म-कल्याण में आमरण प्रवृत्त किया था । इस प्रकार पूर्ण प्रयत्न एवं पूर्ण समाधि के साथ रत्नत्रय को धारण कर सूक्ष्म जीवों को अभय प्रदान करनेवाली प्रकृति का बन्ध कर उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे एवं धर्म के प्रभाव से ऊर्ध्व ग्रैवेयक में सुख के सागर सौमनस नामक अधो-विमान में वे दोनों ही अहमिन्द्र हुए थे । वे दोनों ही अहमिन्द्र | स्वच्छ स्फटिक के समान रत्नों से निर्मित, अनेक ऋद्धियों से परिपूर्ण 'उत्पादगृह' विमान में, दो शिलाओं
के मध्य मणियों से जड़े हुए सुवर्ण पर्यंक (पलंग) पर उत्पन्न हुए थे तथा अन्तर्मुहूर्त में ही यौवन अवस्था रा|| को प्राप्त हो गये थे । उत्पन्न होते समय वे दिव्य माला तथा वस्त्र धारण किए थे तथा सर्वांग आभूषणों |
से सुशोभित थे । जन्म (उत्पन्न) होते ही वे उठकर बैठ गये तथा समस्त दिशाओं में अवलोकन करने लगे । उन्होंने देखा कि विभिन्न प्रकार के रत्नों से निमित्त विशालकाय एवं गगनचुम्बी चैत्यालय है, अति उत्तम विशाल महल हैं तथा संसार में समस्त ऋतुओं में सारभूत सुख देनेवाली बड़ी महान ऋद्धियाँ हैं । उन्होंने तेज के महान पुंज के समान अथवा धर्मोदय के समान समस्त अहमिन्द्रों को एक-सा देखा । उसी समय ऋद्धि को धारण करनेवाले उन दोनों को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । उस अवधिज्ञान से उन्होंने अपने-अपने पूर्व भव का पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात कर लिया, साथ ही तप एवं ज्ञान का उत्तम फल भी समझ लिया । तदनन्तर उन दोनों ने जिनालय में जाकर विविध प्रकारेण भगवान की पूजा की ॥२७०॥ इसके पश्चात् वे दोनों ही अहमिन्द्र धर्म के प्रभाव से प्राप्त हुए प्रविचार रहित, तृप्त करानेवाले तथा आत्मा में
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