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________________ . 44. थे । उनका नाम था अतिबल एवं महाबल । वे अत्यन्त दुष्ट प्रकृति के थे । पूर्व जन्म के बैर के संस्कार से तथा पाप कर्म के उदय से देह से ममत्व त्याग देनेवाले उन मुनिराज पर वे भयंकर उपसर्ग करने लगे । संसार में जो मुनिराज की निन्दा करते हैं, उनकी भव-भव मे निन्दा होती है तथा जो मुनिराज को दुःख (कष्ट) देते हैं, उन्हें नरक में अपार दुःख (कष्ट) भोगना पड़ता है । वज्रायुध मुनिराज पर उससर्ग चल ही रहा था कि इतने में रम्भा एवं तिलोत्तमा नाम की दो देवियाँ वहाँ आ पहुँची । उन्होंने उन दुष्ट देवों को बहुतेरा समझाया कि मुनिराज के तपश्चरण का बल अत्यन्त प्रबल हुआ है, यदि अकस्मात् इन्हें | भी क्रोध आ गया तो फिर इस संसार में भला ऐसा कौन है, जो उनके सामने क्षण भर भी ठहर सके ? इस प्रकार समझाने पर भी जब वे मूढ़ नहीं माने, तो उन्होंने (देवियों ने) उन दोनों देवों को धमकाया, उनकी ताड़ना की एवं उन्हें उपसर्ग करने से रोका । इस प्रकार निग्रंथ मुनिराज में भक्ति रखनेवाली उन दोनों देवियों ने मुनिराज वज्रायुध की रक्षा की । पाप कर्मों के उदय से कारण दोनों लोक इहलोक एवं परलोक में दुःख पाने के भय से वे दोनों व्यन्तर देव वहाँ से पलायन कर गये ॥२३०॥ दोनों पुण्यवती देवियों ने नवधा भक्ति पूर्वक मुनिराज को नमस्कार किया, स्वर्गलोक से लाये हुए पुष्प-गन्ध आदि द्रव्य से उनकी पूजा की तथा फिर वे स्वर्ग को प्रस्थान कर गईं। देखो, कहाँ तो वे दुष्ट देव तथा कहाँ ये पुण्यवती देवियाँ ! पुण्य से क्या सम्भव नहीं होता ? संसार में जो कुछ कठिन है, सार है, दुर्लभ है; धर्मात्माओं को वह सब कुछ प्राप्त होता है । अथानन्तर-वज्रायुध के पुत्र सहस्रायुध को राज्य-भोग करते-करते किसी कारणवश वैराग्य उत्पन्न हो गया तथा वह संवेग गुण का चिन्तवन करने लगा। सत्पुरुषों की परम्परावाले, दानी, पवित्र तथा मोक्ष प्राप्त करनेवाले अपने कुलक्रम का चिन्तवन वे अपने चित्त में करने लगे । वे विचार करने लगे-'देखो ! मेरे पितामह तीर्थंकर हैं, उन्होंने दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त किया है तथा देव-विद्याधर-मनुष्य आदि सब प्राणी उनकी पूजा करते हैं । मेरे पिता भी मोक्ष प्राप्त करने के लिए चक्रवर्ती की राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर संयम धारणपूर्वक प्रतिदिन कठिन तपश्चरण ते हैं । अनन्त सख की कामना करनेवाले अन्य कितने ही नृपतिगण भी विद्वानों द्वारा पूज्य जिनमुद्रा धारण कर मेरे सामने ही वन को चले गये । परन्तु मोह रूपी पिशाच से पराभूत हुआ, विषयों में . अन्धा तथा नष्ट बुद्धि मैं अब तक मीन (मछली) के समान गृह रूपी जाल में फंसा हुआ पड़ा हूँ ॥२४०॥ 4644 ग १२२
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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