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परिपूर्ण आगम रूपी महासागर में अवगाहन करते थे, उसमें स्नान करते थे अर्थात् उसका गम्भीरता से मनन
थे । वे मुनि एक पक्ष (पन्द्रह दिन ) एक मांस, एक वर्ष आदि की मर्यादा से प्रोषधोपवास आदि धारण कर अनेक प्रकार का दुष्कर तप पूर्ण करते थे । वे चित्त को एकाग्र कर निर्जन भवनों मे, पर्वत पर, वृक्षों के कोटरों में एवं गुफा में उत्तम ध्यान धारण कर विराजते थे । वर्षाकाल के चार मास तक वे मुनिराज वृक्ष के तले काष्ठ के स्तम्भ के समान निश्चल खड़गासन (खड़े होकर) में पाप कर्मों को विनाश करनेवाला योग धारण करते थे । शीतकाल में रात्रि के समय चतुष्पथ (चौराहे ) पर कायोत्सर्ग धारण कर हिम ( बरफ ) से आच्छादित पर्वत के सदृश भय रहित खड़गासन में विराजते थे । ग्रीष्म ऋतु में वे मुनिराज धूप से विदग्ध पर्वत की तप्त शिला पर स्वेद कणों से विभूषित होकर सूर्य के समान कायोत्सर्ग धारण कर खड़े रहते थे । इस प्रकार वे मुनिराज अनन्त सुख प्राप्त करने के लिए तथा देहादिक पुद्गलों तथा कर्मों को नष्ट करने के लिए अपनी क्षमता (शक्ति) के अनुसार तीनों ऋतुओं से उत्पन्न हुए कायक्लेश को समभाव से सहन करते थे। किसी एक दिन वज्रवृषभ - नाराच संहनन को धारण करनेवाले वे धीर-वीर मुनिराज पापों का विनाश करने हेतु सिद्धिगिरि पर्वत पर प्रतिमा योग धारण कर अत्यन्त स्थिरता से विराजमान हुए । उन्हें अवलोक कर आकाश मार्ग से गमन करते हुए विद्याधर अपने हृदय में आश्चर्यचकित पु होकर कल्पना करते थे- 'क्या यह कोई पर्वत का शिखर है, या कोई स्तम्भ है, या मस्तक पर काले केशों के भ्रमरों से आवृत्त कोई वृक्ष है, या देह से ममत्व त्यागे हुए कोई मुनिराज हैं ? ' ॥ २२० ॥ वे मुनिराज इतने निश्चल थे कि उन्हें वृक्ष समझ कर अनेक प्रकार के महाभयंकर सर्प भी उनकी काया (देह) एवं मस्तक पर चढ़ जाते थे । उन मुनिराज के दोनों चरणों का सहारा लेकर सर्पों ने बहुत सारे बाँबी (बिल) बना लिए थे । यह उचित भी है ! क्योंकि मुनियों के चरण-कमलों के स्पर्श से निर्भय होकर शत्रु भी बढ़ आते हैं । कितनी ही बेलों ने मानों मार्दव गुण (कोमलता ) को प्राप्त करने की कामना से ही उन मुनिराज की देह को आपाद कण्ठ आवृत्त कर अपने को भलीभाँति विस्तीर्ण कर लिया था । मुनिराज उत्कृष्ट आत्मा का ध्यान कर समस्त परीषहों पर विजय प्राप्त कर ऐसे निश्चल विराजमान हो गये थे, मानो बेलों से ढँका हुआ कोई वृक्ष ही हो । अब आगे का वृत्तान्त सुनिये - रत्नकण्ठ एवं रत्नायुध अश्वग्रीव के पुत्र । वे अपने पाप कर्मों के उदय से संसार - सागर में परिभ्रमण करते हुए धर्म सेवन के कुछ प्रभाव के व्यन्तर देव हुए
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