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कर्मों के उदय से इस संसार-रूपी वन में घूमता रहता है एवं दुःखरूपी पर्वत पर कभी चढ़ता तो कभी नीचे उतरता रहता है । यदि संसार ही कल्याणकारी होता, तो श्री जिनेन्द्रदेव ने इसका त्याग क्यों किया ? उन्होंने मोक्ष रूपी राजलक्ष्मी के साथ-साथ मुक्तिरूपी रमणी को क्यों ग्रहण किया ?' इस प्रकार चिन्तवन करने से वज्रायुध चक्रवर्ती का वैराग्य द्विगुणित हो गया, जो कि अनेक प्रकार के सुखों का प्रदाता एवं ज्ञान का निमित्त (कारण) है । तदनन्तर वे चक्रवर्ती श्री अरहन्तदेव को नमस्कार कर, उनके वचनामृत का पान कर एवं भोग-तृष्णा आदि से उत्पन्न हुए भव-दाह को विनष्ट कर अपने राजमहल को चले गये ॥२००॥ संसार से विरक्त हुए उन बुद्धिमान (चक्रवर्ती) न सज्जनों के द्वारा त्याग करने योग्य अपना विस्तृत साम्राज्य पुत्र सहस्रायुध को भव्य समारोह पूर्वक सौंप दिया एवं इस प्रकार वे निश्चिन्त हो गए। तदनन्तर वे चक्रवर्ती दीक्षा धारण करने की कामना से षट-खण्ड की राज्यलक्ष्मी, नव निधि, चतुर्दश रत्न एवं छियानवे सहस्र (हजार) रानियों का परित्याग कर अपने पिता क्षेमकर तीर्थंकर के समीप पहुँचे । वे जिनेन्द्र भगवान तीनों लोकों के स्वामी थे, गुणों के समुद्र थे एवं अनन्त महिमा सहित विराजमान थे । चक्रवर्ती ने उनको हार्दिक भक्ति से मस्तक नवाकर तीन बार नमस्कार किया एवं उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी । तत्पश्चात् मोक्ष प्राप्त करने के उद्देश्य से उनकी आज्ञानुसार वस्त्रादि बाह्य परिग्रहों तथा मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रहों का त्याग किया एवं मुनि दीक्षा धारण की । उन्होंने अहिंसा आदि पाँच महाव्रत धारण किये, ईर्या समिति आदि पाँच उत्तम समितियाँ धारण की, स्पर्श आदि पन्च (पाँचों) इन्द्रियों के विषयों को रोका, सामायिक आदि षट (छः) आवश्यक धारण किये, केश लोंच किया, नग्नावस्था धारण की, स्नान का त्याग किया, सदा पृथ्वी पर शयन का नियम लिया, दन्तधावन करने का त्याग किया एवं मध्याह्न के समय दूसरों के गृह पर सुखद पवित्र प्रासुक भोजन खड़े होकर एक बार लेने का नियम लिया । श्री जिनेन्द्रदेव ने दीक्षा देते समय वज्रायुध चक्रवर्ती को उपरोक्त अट्ठाईस मूलगुण के विषय में उपदेश दिया | था । मुनियों को ये अट्ठाईस मूलगुण प्राण नाश होने पर भी कभी नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि ये मूलगुण ही समस्त गुणों के मूलभूत हैं, अर्थात् धर्म रूपी वृक्ष की जड़ समतुल्य हैं ॥२१०॥ मुनिराज बिना किसी व्यतिक्रम के समस्त प्रमादों को त्याग कर मोक्ष प्रदायक इन अट्ठाईस मूलगुणों का सदैव पालन करते रहते हैं । वे वज्रायुध मुनिराज तृष्णा रूपी ताप को शान्त करने के लिए तत्व रूपी शीतल जल से
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