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________________ . FFFFF धर्म ही स्वामी है, धर्म ही पिता है, धर्म ही माता है, धर्म ही हितकारक है एवं धर्म ही पुनर्जन्म के लिए पाथेय (यात्रा में भोजन सामग्री) है । धर्म ही मृत्यु से रक्षा के लिए शरण है, धर्म ही वृद्धावस्था रूपी व्याधि की औषधि है तथा उत्तम धर्म ही नरक रूपी कूप से रक्षा करनेवाला है, मुक्ति रूपी रमणी को वश | में करनेवाला है। यह धर्म महाव्रत धारण, घोर दुष्कर तपश्चरण, रत्नत्रय, यम-नियम, योग-महाध्यान आदि के द्वारा निर्मल हृदयवाले धीर-वीर मुनियों के द्वारा ही धारण किया जाता है । स्वर्गों का सुख प्रदायक 'एकदेश धर्म' का सम्यक्ज्ञान, अणुव्रत, दान, पूजन, गुरु सेवा, प्रोषधोपवास, निरन्तर व्रत धारण की भावना एवं तीर्थंकरों की भक्ति आदि के द्वारा सदैव आराधन किया जाता है।' इस प्रकार अरहन्त भगवान का उपदेश सुन कर राजा वज्रायुध आदि काल-लब्धि प्राप्त हो जाने के कारण देह-भोग एवं संसार से विरक्त हुआ । तदनन्तर वह बुद्धिमान अपने चित्त में विचार करने लगा-'संसार में भोगों की लम्पटता भी बड़ी विचित्र है ! आश्चर्य है कि ये हैं तो मेरे पौत्र, आयु में भी मुझसे बहुत कम हैं, किन्तु अपनी धीरता-वीरता एवं तपश्चरण के कारण अल्पावस्था में ही इन्हें केवलज्ञान की अक्षय सम्पदा प्राप्त हो गयी है । इसलिये संसार में इनकी आत्मा धन्य है ! देखो, मुझे तीन ज्ञान प्राप्त हैं, तो भी मैं मूढ़ के समान भ्राता-बन्धु रूपी बन्धन से बँधा हुआ राज्यरूपी कारागार में बन्दी पड़ा हूँ ॥१९०॥ जिन धीरता-वीरता आदि गुणों से धीर-वीर पुरुष मोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्मरूपी शत्रुओं का विनाश न कर सके, उन उदात्त गुणों से इस संसार में भला अन्य क्या हित सिद्ध हो सकता है ? इस देह में सार ही क्या है, जिसके लिए मूढ़ जन इसकी पुष्टि व पालन-पोषण में नरकायु का बन्ध करानेवाले अनेक प्रकार के पाप सन्चित करते हैं ? यह काया शुक्र एवं शोणित से उत्पन्न हुई है, सप्त धातुओं से परिपूर्ण है, विष्टा आदि से निमग्न है, मलमूत्र का पात्र (बर्तन) है एवं कीटों से भरी हुई है । इसकी अस्थियों का समूह, मज्जापिण्ड, चर्म आदि केवल एक भव में ही सुख देते हैं; परन्तु ये भोग अनन्त जन्मों में दुःख ही देते रहते हैं । इसलिये बुद्धिमान प्राणी को मोक्ष प्राप्त करने के लिए क्रुद्ध सर्प के समान इन भोगों से अवश्य दूर रहना चाहिये एवं प्राणहानि की आशंका होने पर भी इनको ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि ये धर्म का विनाश करनेवाले हैं । यह संसार सब तरह के दुःखों की खानि है, घोर कष्टदायक है, अत्यन्त विषम है, विनश्वर है, अनन्त है एवं भयानक है । इससे भला कौन बुद्धिमान प्रेम करेगा ? विषयों में आबद्ध (फंसा हुआ) यह जीव 444 4
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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