SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसका पार (थाह) नहीं पा सकता एवं न ही कोई आप की समग्र स्तुति करने में सक्षम है । हे देव ! आप मेरी रक्षा कीजिये, प्रसन्न होकर धर्मोपदेश दीजिये । मैं संसार-चक्र से भयभीत होकर आपके चरण कमलों की शरण में आया हूँ।' इस प्रकार स्तुति कर चक्रवर्ती वज्रायुध धर्म श्रवण करने के लिए उनके चरणों में दृष्टि निबद्ध कर उनके समीप बैठ गये । तदनन्तर वे जिनराज कृपापूर्वक अपने पितामह (दादा) का उपकार करने के निमित्त से अपनी दिव्य ध्वनि के द्वारा समस्त जीवों का हित करनेवाले धर्म का स्वरूप बताने लगे ॥१७०॥ वे कहने लगे-'हे चक्रवर्ती ! तुम चित्त को स्थिर कर सुनो । मैं संसार का स्वरूप प्रकट करता हूँ, धर्म का स्वरूप स्पष्ट करता हूँ एवं उनके कारणों को भी बतलाता हूँ। यह संसार अनन्त हे, अभव्य जीव इसकी थाह (पार) कभी नहीं पा सकता । यह अनादि है, दुःखों से भरा हुआ है एवं चतुर्गतिमय है । यद्यपि यह अनादि है, तथापि रत्नत्रय को प्रगट करनेवाली काल-लब्धि को प्राप्त कर तुम सरीखे भव्य जीवों में यह शान्त भी हो जाता है, अर्थात् इसका अन्त भी हो जाता है । यह संसार रूपी महासागर अत्यन्त गम्भीर (गहरा) है, दुःखरूपी असंख्य लहरों से आंदोलित है, जन्म-मरण एवं वृद्धावस्था रूपी मगरमच्छों से परिपूर्ण है तथा अत्यन्त भयानक है । इसमें जो जीव रत्नत्रय रूपी श्रेष्ठ पात्रों से भरी हुई धर्म रूपी नौका का अवलम्बन नहीं पाते हैं, वे ही अनन्त बार डूबते एवं उतराते रहते हैं । इसलिए भवजाल का नाश करने के लिए चतुर पुरुषों को धर्म का सेवन अवश्य करना चाहिये । क्योंकि धर्म ही मुक्ति रूपी कन्या का पिता है। जो लोग मुक्ति रूपी कन्या में आसक्त हैं, उन्हें उसका वरण करने के लिए उसके पिता धर्म को सेवा अवश्य करनी चाहिए । तीनों लोकों में हर्ष उल्पन्न करनेवाली, पन्च कल्याणकों से सुशोभित तथा तीर्थंकर द्वारा पूज्य समवशरणादि रूपी लक्ष्मी मनुष्यों को धर्म के ही प्रभाव से प्राप्त होती है । सम्यदृष्टि जीवों को इन्द्र का राज्यपद (जिसकी सेवा सब देवगण करते हैं एवं जो समस्त भोगों को एकमात्र स्थान माना जाता है) धर्म से ही मिलता । हे चक्रवर्ती ! तुम्हें जो यह चक्रवर्ती पद रूपी |११८ राज्य लक्ष्मी प्राप्त हुई है, वह पूर्व जन्म के धर्म के प्रभाव से ही हुई है । तुम्हारी इस राज्यलक्ष्मी को देव, विद्याधर, आदि समस्त जन सेवा करते हैं एवं यह संसार की सब उपमाओं से रहित है । संसार में जो भी वस्तु दुर्लभ है, जो भी सुख है एवं जो भी उत्तम पद है, वह सब धर्म के प्रभाव से ही तीनों लोकों में से स्वयं आकर चतुर पुरुषों के निकट उपस्थित हो जाता है ॥१८०॥ धर्म ही बन्धु है, धर्म ही परम मित्र है,
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy