SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ 449 उनका भला क्या अहित कर सकते हैं? ___ मुनिराज कनकशान्ति को केवलज्ञान प्राप्त होने के उपरान्त उनकी पूजा के लिए समस्त देव वहाँ आये । समवेत देवों को देख कर वह पापी विद्याधर भयभीत हो गया, भय से उसका सर्वांग प्रकम्पित हो उठा तथा वह बैर भाव त्याग कर भव्य-जीवों की रक्षा करनेवाले तीनों लोकों के स्वामी अरहन्तदेव की शरण में आया । यह उचित ही है, क्योंकि अधम प्रकृति के प्राणियों की प्रवृत्ति ऐसी ही होती है । तदनन्तर 'जय-जय' नाद से तुमुल कोलाहल करते हुए, वाद्य-वादित्र झंकृत करते हए तथा पूजा की सामग्री लिए हुए इन्द्रादिक अपनी-अपनी देवागंनाओं के साथ आए । उन्होंने अतिशय भक्ति से, स्वर्गलोक के दिव्य द्रव्यों से जिनराज श्री कनकशान्ति की बहुविधि से पूजा-अर्चना की, उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी तथा उन्हें नमस्कार किया। अपने पौत्र (पुत्र के पुत्र) को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, यह सुनकर वज्रायुध चक्रवर्ती ने 'आनन्द' नामक गम्भीर भेरी बजवाई । वे प्रसन्नचित्त होकर अपने परिवार, भाई-बन्धुओं तथा सेना को लेकर पूजा करने के लिए उन जिनराज के समीप पहुँचे । उन्होंने वहाँ पहुँच कर उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी, मस्तक नवा कर उन्हें नमस्कार किया, पूजा की एवं फिर बड़ी भक्ति से उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥१६०॥ 'हे देव ! हे जिनाधीश ! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं, आप की जय हो । आप तीनों लोकों में पूर्ण वृद्धि प्राप्त होने तक निरन्तर वृद्धिशील रहें । हे नाथ ! आप तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ हैं। हे स्वामिन् ! आप बुद्धिमानों के भी गुरु हैं; आप मनुष्यों के लिए बिना कारण हित करनेवाले भ्राता हैं | एवं आप ही सब की रक्षा करनेवाले हैं । हे प्रभो ! देवलोक के स्वामी इन्द्रादि भी मस्तक नवा कर आप को नमस्कार करते हैं एवं अपनी आत्मा का हित चाहनेवाले मुनिराज भी आप के दोनों चरण-कमलों की सेवा करते हैं । हे देव ! यह पापी कामदेव प्रचण्ड बलवान है, इस दुष्ट ने तीनों लोकों को भी जीत लिया है; परन्तु आपने ब्रह्मचर्य रूपी प्रबल शस्त्र से बाल्यावस्था में ही इसे परास्त कर दिया है । हे भगवन् ! सज्जनवृन्द आपकी सेवा करते हैं, भव्य जीवों को आप शरण देनेवाले हैं, मुक्ति रूपी रमणी आप पर आम म नीवर सदैव आप की स्तति करते हैं। हे देवों के द्वारा पूज्य ! आप ने बाल्यावस्था में ही चारित्र-रूपी खड्ग द्वारा तीनों लोकों के विजेता अत्यन्त भयंकर मोह रूपी दुर्द्धर शत्रु का वध कर डाला । हे जगन्नाथ ! आपका गुणरूपी महासागर अनन्त है, इन्द्र हो या अन्य कोई भी बुद्धिमान हो-वह
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy