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को विधिपूर्वक मन-वचन-काय को शुद्ध कर बड़ी भक्ति से प्रासुक, मधुर, चिकना, रसीला, धर्म वृद्धिदायक तथा कृतादि दोषों से रहित शुद्ध आहार दिया । उसी समय सन्चित पुण्य के प्रभाव से राजा के प्रांगण में देवों ने रत्न-वृष्टि आदि उत्तम पन्चाश्वर्य प्रकट किये । मुनियों को दान देने से जब इहलोक में ही नाना प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है, तो फिर भला परलोक में सुख भोग की सामग्री तथा देवों की अतुल सम्पदा क्यों नहीं मिल सकती ?॥१४०॥ जिस प्रकार बुद्धिमान प्राणी सुवर्ण तथा रत्नों के सीमित व्यापार से ही बहुत-सा धन कमा लेते हैं, उसी प्रकार सत्पात्रों को स्वल्प-सा दान देकर भी मनुष्य इहलोक | तथा परलोक दोनों में सखों से परिपूर्ण समद्र के समान श्रेष्ठ पुण्य का उपार्जन करता है। एक
मुनिराज घातिया कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने के लिए सुरनिपात नामक वन में प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हुए । उनको वहाँ देख कर पूर्व बैरी चित्रशूल क्रोधरूपी अग्नि से विदग्ध हो गया एवं पाप-कर्म के उदय से उस मूढ़ ने मुनि पर उपसर्ग करना प्रारम्भ किया । देह से लेशमात्र भी ममत्व न रखनेवाले उन मुनिराज पर उस दुष्ट ने अत्यन्त भयोत्पादक घोर एवं असह्य उपसर्ग करना प्रारम्भ किया । उसने प्रचण्ड कष्टदायी ताड़ना की, धर्म उच्छेद एवं विकार उत्पन्न करनेवाले कर्कश वचन कहे तथा विद्या बल के द्वारा उन पर भाँति-भाँति के उपसर्ग किए । परन्तु कनकशान्ति मुनिराज ने संवेग गुण से विभूषित एवं संकल्प-विकल्पों से रहित अपने चित्त को देह से विलग आत्मध्यान से लवलीन कर एवं चित्त को स्थिर कर तीव्र परीषहों को जीता तथा मृत्यु के भय से रहित होकर वे मेरु पर्वत के समान निश्चल विराजमान रहे । उन्होंने उस दुष्ट पर क्रोध न कर उत्तम क्षमा धारण की तथा संवर धारण कर अप्रमत्त गुणस्थान में आरूढ़ हो गए। उन्होंने सर्वप्रथम शुक्लध्यान रूपी खड्ग से शेष बच रहे घातिया कर्मों का विनाश किया ॥१५०॥ तदनन्तर उन मुनिराज के उसी समय समस्त संसार को प्रत्यक्ष प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञान का उदय हुआ । यह उचित ही है क्योंकि उत्तम क्षमा से भला क्या नहीं प्राप्त नहीं होता है ? अर्थात सब कुछ प्राप्त होता है । इसलिए वंदनीय मुनिराज किसी दुष्ट शत्रु पर भी कभी क्रोध नहीं करते हैं, तथा आत्मों की शुद्धता की सिद्धि के लिए सदैव क्षमा धारण करते हैं । जिस प्रकार बिना तृण-संयोग के अग्नि निस्तेज हो जाती है, उसी प्रकार वह दुर्जन विद्याधर चित्रशूल भी क्षमा के सम्मुख निस्तेज हो गया, उनका कुछ भी अनिष्ट न कर सका । सो उचित भी है; क्योंकि जिनके कभी क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता, दुष्ट जन.
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